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विचुचोर को प्रतिबोध] केवलिकाल : प्रायं जम्बू
"पद्मश्री, कनकधी, विनयश्री और रूपश्री नाम की अपनी चारों नवविवाहिता पत्नियों के साथ जम्बूकुमार प्रथम-मिलन की रात्रि में अपने प्रासाद के अत्यन्त मनोरम ढंग से सुसज्जित शयनकक्ष में बैठे हुए थे । जम्बूकुमार की माता जिनदासी के हृदय की धड़कन रात्रि के एक-एक क्षण के व्यतीत होने के साथ-साथ निरन्तर बढ़ती जा रही थी। यह रात्रि उसकी कुलपरम्परा, गार्हस्थ्य जीवन और उसके जीवन के समस्त प्रकार के प्राकर्षण और भविष्य के लिये अन्तिम निर्णायक रात्रि थी। वह अपने अन्तर में अनन्त उत्सुकता लिये बार-बार दबे पांवों अपने शयनकक्ष से निकल कर अपने नयनतारे जम्बू के शयनकक्ष के द्वार पर आती और बन्द कपाटों पर कान रख कर यह जानना चाहती थी कि अप्सराओं के समान अनुपम सुन्दर उसकी चार नव-कुलवधुएं अपनी रूपसुधा से उसके लाल को मदविह्वल कर अपने स्नेह-सूत्र के प्रगाढ़ बन्धन में प्राबद्ध करने में सफ़ल हुईं अथवा नहीं। अपने पुत्र और पुत्रवधुओं के वार्तालाप का जो थोड़ा बहुत अंश उसके कर्णरन्ध्रों में पड़ता उससे उसकी प्राशाओं पर तुषारापात हो जाता और वह अपरिसीम वेदना से छटपटाती हुई पुनः अपने कक्ष की ओर लौट जाती। उसे सारा संसार अन्धकारपूर्ण प्रतीत होने लगता। कुछ ही क्षणों पश्चात् वह पुनः प्राशा का सम्बल लिये जम्बूकुमार के शयनागार के द्वार पर पहंचती। मातृस्नेह ने इस क्रम को निरन्तर बनाये रखा । वह स्वासोच्छ्वास को अवरुद्ध किये अपने लाडले लाल के शयनगृह के द्वार पर कान लगाये खड़ी थी। - उसी समय विद्युत्प्रभ नामक एक प्रतिसाहसी कुख्यात चोर ने अपने ५००. साथी चोरों के साथ प्रहदास के घर में प्रवेश किया। वह चोर पोदनपुर नगर के राजा विद्युतराज और रानी विमलमती का पुत्र था । विद्युतप्रभ किसी कारणवश अपने बड़े भाई से रुष्ट हो अपने पांच सौ योद्धानों के साथ पोदनपुर से निकल गया और चौर्यकर्म से अपनी आजीविका चलाता था। वह अदृश्य होने और तालों तथा कपाटों को खोलने की विद्या में निपुण था । जिनदासी को विनिद्र और चिन्तितावस्था में कपाट के पास खड़ी देख कर विद्युत्प्रभ ने उससे उसका कारण पूछा।
माता जिनदासी ने अपनी अथाह अन्तर्व्यथा को उंडेलते हुए संक्षेप में अपनी चिन्ता का कारण विद्यच्चोर को बता दिया। विद्युच्चोर ने जब यह सूना कि कुबेरोपम अपार कांचनराशि और कामिनियों का परित्याग कर युवा जन्बूकुमार दीक्षित होना चाहता है तो उसके अन्तर्चा उन्मीलित हो गये । उसे अपने चौर्यकर्म से और स्वयं अपने आपसे घृणा हो गई। उसने जिनदासी को आश्वस्त करते हुए जम्बूकुमार के शयनकक्ष में प्रवेश किया और उन्हें त्यागमार्ग से विमुख तथा भोगमार्ग की ओर उन्मुख करने हेतु अपनी समस्तं वाक्चातुरी, सुतीक्ष्ण बुद्धि पौर नैपुण्य का प्रयोग किया। विद्युमोर पोर जम्मूकुमार के बीच काफी देर
संवाद चला और अंततोगत्वा विद्युयोर जम्बूकुमार के विरक्ति के रंग में
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