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पाटलीपुत्र का निर्माण] केवलीकाल : प्रायं जम्बू युद्ध में पराजित कर मगध के विशाल राज्य को निष्कंटक-शत्रुविहीन बना कर प्रजा को सुशासन दिया। .
कुशल राजनीतिज्ञ एवं सुयोग्य शासक होने के साथ-साथ उदायी बड़े ही धर्मनिष्ठ थे। उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा थी। वे प्रत्येक पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी के दिन नियमित रूप से पौषध किया करते थे।
अपने शासन को सुदृढ़ बनाने हेतु उन्होंने अनेक उद्धत राजामों एवं सामन्तों की सैन्यशक्ति को विच्छिन्न कर उन्हें राज्यच्युत किया। एक समय अपने वशवर्ती इसी प्रकार के एक उद्दण्ड राजा द्वारा उनके प्रति किये गये विद्रोह को दबाने के लिये उदायी ने उसके राज्य पर आक्रमण किया। युद्ध में वह विद्रोही राजा बुरी तरह पराजित हुप्रा और इसी शोक से कुछ ही समय पश्चात् उसका प्राणान्त हो गया। उस मृत विद्रोही राजा का बड़ा, राजकुमार अपने पिता की मृत्यु और राज्य छिन जाने से क्रुद्ध हो उदायी से बदला लेने की सोचने लगा। भीषण प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो वह उज्जयिनी गया । उस समय उज्जयिनी में चण्डप्रद्योत के पौत्र का राज्य था।
चण्ड प्रद्योत और श्रेणिक के समय से ही मगध और मालवा के राजवंशों में परस्पर शत्रुता एवं स्पर्धापूर्ण सम्बन्ध चले आ रहे थे। अतः राजकुमार ने मालवपति की सेवा में उपस्थित हो उदायी से प्रतिशोध लेने का अपना संकल्प प्रकट किया। उदायी जसे प्रबल प्रतापी एवं शक्तिशाली राजा के साथ खुले रूप में टक्कर लेने का मालवपति. साहस न कर सका और उसने केवल मौखिक सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे यह कह कर विदा किया कि उपयुक्त अवसर माने पर ही कुछ किया जा सकता है। . विद्रोही राजकुमार के हृदय में प्रतिशोध की अग्नि प्रचण्ड वेग से प्रज्वलित हो रही थी। उचित अवसर की प्रतीक्षा करने का उसमें धैर्य नहीं रहा प्रतः वह राजकुमार छप वेष में पार्टीलपुत्र पहुंचा और महाराजा उदायी पर कपटपूर्वक प्राणघातक प्रहार करने की अन्तर में दुराशा छुपाये रात-दिन किसी उपयुक्त अवसर की टोह में रहने लगा । विद्रोही राजकुमार ने उदायी के प्राणों से अपनी प्यास बुझाने के मार्ग में सभी प्रकार के छल-छप का सहारा लिया किन्तु राजकीय सुदृढ़ रक्षा व्यवस्था के कारण उसे अपने उद्देश्य की पूर्ति में किंचित्मात्र भी सफलता प्राप्त नहीं हुई । अपनी असफलता पर हताश होने के स्थान पर वह प्रतिशोध लेने के लिये दिमः तिदिन और अधिक उत्तेजित रहने लगा । अहर्निश इस उधेड़-बुन में रहते-रहते अन्ततोगत्वा उसने अपनी उद्देश्यप्रति के लिये एक जघन्य उपाय ढूंढ़ निकाला।
उसने देखा कि उदायी न माधयों का अनन्य भक्त है। प्रत्येक पक्ष की अष्टमी पौर चतुर्दशी को वह अपनी पौषधशाला में श्रमणों को मामन्त्रित करता है और उनसे पौषभ ग्रहण कर महनिश उनकी सेवा में रहता है । श्रमणों पर
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