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मधुबिंदु का दृष्टांत] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी
२६७ पर्याप्त प्रतीक्षा करने के पश्चात उस विद्याधर ने देखा कि घोर दुःखों से पीडित होते हर और मृत्यु के मह में फंसा होकर भी यह अभागा मधु-बिन्दु के लोभ को नहीं छोड़ रहा है, तो वह उसे वहां छोड़कर अपने सुन्दर एवं सुखद
आवास की ओर चला गया और वह दुःखी व्यक्ति अनेक प्रकार की असह्य यातनामों को भोगता हुमा अंततोगत्वा काल का कवल बन गया।
जम्बूकुमार ने कहा- "प्रभव ! इस दृष्टान्त में वर्णित अर्थार्थी वणिक - संसारी जीव, भयानक वन- संसार, हाथी-मृत्यू, कुमा- देवमानवभव, वणिजसंसार की तृष्णा, अजगर-नरक और तिर्यंच गति, चार भीषण सर्प - दुर्गतियों में ले जाने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी चार कपाय, वट वृक्ष की शाखाप्रत्येक गति की आयु, काले और श्वेत रंग के दो चूहे - कृष्ण और शुक्ल पक्ष, जो रात्रि और दिन रूपी अपने दांतों से आयुकाल की शाखा को निरन्तर काट रहे हैं। वृक्ष-कर्मबन्ध के हेतुरूप अविरति और मिथ्यात्व, मधुविन्दु-पांचों इन्द्रियों के विषय सुख और मधुमक्खियां-शरीर में उत्पन्न होने वाली अनेक व्याधियां हैं। विद्याधर हैं सद्गुरु जो कि भवकूप में पड़े हुए दुःखी प्राणियों का उद्धार करना चाहते हैं।" .. प्रभव से जम्बूकुमार ने प्रश्न किया - "प्रभव ! अव तुम बताओ कि जिन परिस्थितियों में वह व्यक्ति कुएं के अन्दर लटक रहा था, उसे कितना सुख था और कितना दुःख ?"
प्रभव ने क्षरणभर के लिये विचार कर कहा - "लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात् जो शहद की एक बून्द उसके मुख में गिरती थी, बस यही एक थोड़ा-सा उसे सुख था, शेष सब दुःख ही दुःख थे।"
जम्बूकुमार ने कहा - "प्रभव ! यही स्थिति संसार के प्राणियों के सुख और दुःख पर घटित होती है। अनेक प्रकार के भय से घिरे हए उस व्यक्ति को वस्तुत: नाममात्र का भी सुख कहां? ऐसी दशा में मधुबिन्दु के रसास्वाद में सुख की कल्पनामात्र कही जा सकती है, वस्तुतः सुख नहीं।"
जम्बकुमार ने प्रभव से पुनः प्रश्न किया-- "प्रभव ! इस प्रकार की दयनीय और संकटपूर्ण स्थिति में कोई व्यक्ति फंसा हा हो और उसे कोई परोपकारी पुरुष कहे - "यो दुःखी मानव ! ले मेरा हाथ पकड़ ले, मैं तुझे इस घोर कष्टपूर्ण स्थान से बाहर निकालता हूं।" तो वह दुःखी व्यक्ति उस परोपकारी महापुरुष का हाथ पकड़कर बाहर निकलना चाहेगा या नहीं ?"
प्रभव ने उत्तर दिया - "दुःखों से अवश्य वचना चाहेगा।"
जम्बूकुमार ने कहा - "कदाचित् मधुबिन्दु के स्वाद के मोह में फंस कर कोई मूढ़तावश कह दे कि पहले मुझे मधु से तृप्त होने दीजिये फिर बाहर निकाल लेना, तो वह दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता, क्योंकि उसकी इस प्रकार कभी तृप्ति होने वाली नहीं है । जिस शाखा के सहारे वह लटक रहा है, उस शाखा के काले और श्वेत मूशकों द्वारा, कटते ही वह भयंकर अजगर के मुंह में पड़ेगा।
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