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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
प्रभव ! इस प्रकार को वस्तुस्थिति को समझ जाने के पश्चात् से निकलने के कार्य में किंचितमात्र भी प्रमाद नहीं करूंगा ।"
[सबिंदु का दृष्टांत
इस भवकूप
में
प्रभव ने जम्बूकुमार द्वारा रखी गई वस्तुस्थिति की तथ्यता को स्वीकार करते हुए प्रश्न किया - "आपने जो कहा वह तो सब ठीक है किन्तु आपके समक्ष ऐसी कौनसी दुःखपूर्ण स्थिति उपस्थित हो गई है, जिसके कारण आप असमय में ही अपने उन सब स्वजनों को छोड़कर जा रहे हैं, जो आपको प्रारणों से भी अधिक चाहते हैं ?"
मैं
संसार का बड़ा दुःख
जम्बूकुमार ने उत्तर दिया “प्रभव ! गर्भवास का दुःख क्या कोई साधारण दुःख है ?" जो विज्ञ व्यक्ति गर्भ के दुःखों को जानता है, उसको संसार से विरक्त होने के लिये वही एक कारण पर्याप्त है, निर्वेद प्राप्ति के लिये उसे इसके अतिरिक्त अन्यान्य कारणों की कोई आवश्यकता नहीं रहती ।" यह कह कर जम्बूकुमार ने प्रभव को गर्भवास के दुःख के सम्बन्ध में ललितांग का दृष्टान्त सुनाया, जो इस प्रकार है :
·
ललितांग का दृष्टान्त
" किसी समय वसन्तपुर नगर में शतायुध नामक एक राजा राज्य करता था । शतायुध की एक रानी का नाम ललिता था। रानी ललिता ने एक दिन एक अत्यन्त सुन्दर तरुण को देखा और उसके प्रथम दर्शन में ही वह उस पर प्रारणपण से विमुग्ध हो, उसके संसर्ग के लिये छटपटाने लगी। रानी ने अपनी एक विश्वस्त दासी को भेज कर उस युवक के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त की और जब उसे यह ज्ञात हुआ कि वह युवक उसी वसन्तपुर नगर के निवासी समुद्रप्रिय नामक सार्थवाह का पुत्र है, तो उसने एक प्रेमपत्र लिखकर अपनी दासी के द्वारा उस युवक के पास पहुँचाया ।
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छल-छद्म में निपुण उस दासी ने येन-केन प्रकारेण युवक को रानी के भवन में लाकर रानी से उसका साक्षात्कार करवा दिया। रानी और ललितांग वहां निश्शंक हो विषयोपभोग में निरत रहने लगे। एक दिन राजा को अपनी रानी और युवक ललितांग के अनुचित सम्बन्ध के बारे में सूचना मिली, तो सहसा रानी के महल में वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिये छानबीन प्रारम्भ करा दी गई । चतुर दासी को तत्काल ही इसकी सूचना मिल गई और उसने अपने तथा अपनी स्वामिनी के प्राणों की रक्षा के निमित्त ललितांग को श्रमेध्यकूप. ( गन्दा पानी डालने का कुप्रा) में ढकेल दिया । नितान्त अपवित्र एवं दुर्गन्धपूर्ण उस कुए में अपने आपको बन्द पाकर ललितांग अपनी दुर्बुद्धि और अज्ञानता पर प्रहर्निश पश्चात्ताप करते हुए विचार करने लगा - हे प्रभो ! अब अगर एक बार किसी न किसी तरह इस प्रशुचि स्थान से बाहर निकल जाऊं, तो इन भयंकर दुखद परिणाम वाले काम-भोगों का सदा के लिये परित्याग कर दूंगा ।"
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