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जैन धर्म का मौलिक इतिह: - द्वितीय भाग [ कुबेरदत्त कुष् का श्रा०
अंगूठी निकाल कर कुबेरदत्त की उसी अंगुली में पहना दी जिसमें कि उसकी स्वयं की नामांकित अंगठी विद्यमान थी ।
दोनों अंगूठियों में पूर्ण साम्य देख कर कुबेरदत्त के मन में भी उसी प्रकार के विचार उत्पन्न हुए और उसे भी विश्वास हो गया कि निश्चित रूप से उस समानता के पीछे कोई रहस्य छुपा हुआ है । कुबेरदत्त ने कुबेरदत्ता को उसकी अंगूठी लौटा दी और अपनी अंगूठी लेकर वह अपनी माता ( धर्ममाता) के पास पहुंचा । कुबेरदत्त ने अपनी माता को शपथ दिलाते हुए कहा - "मेरी अच्छी मां ! मुझे साफ-साफ और सत्य बात बता दो कि मैं कौन हूं, यह अंगूठी मेरे पास कहां से भाई ? कुबेरदत्ता के पास भी ऐसी ही अंगूठी है जिस पर अंकित अक्षर मेरी अंगूठी पर अंकित अक्षरों से पूर्ण रूपेरण मिलते-जुलते हैं ।"
श्रेष्ठपत्नी ने श्रादि से लेकर अन्त तक की सारी घटना कुबेरदन को सुना दी कि वस्तुतः वह उसका अंगज नहीं है । उसके पति ने उसे यमुना के प्रवाह में बहती हुई एक छोटी सी सन्दूक में रत्नों से भरी एक पोटली और उस अंगूठी के साथ पाया था ।
श्रेष्ठिपत्नी से पूरी घटना सुनने के पश्चात् कुबेरदत्त को पक्का विश्वास हो गया कि कुबेरदत्ता वस्तुतः उसकी सहोपरा है। उसने पश्चात्ताप और उपालम्भभरे स्वर में कहा - "मां तुमने जानते -बूझते भाई का बहिन के साथ विवाह करा कर ऐसा अनुचित और निन्दनीय कार्य क्यों किया ?"
श्रेष्ठिपत्नी ने भी पश्चात्तापभरे स्वर में कहा - "पुत्र ! हमने जानते हुए भी मोहवश यह अनर्थ कर डाला है । पर तुम शोक् त करो। वधू को केवल पाणिग्रहण का ही दोष लगा है । कोई महापाप नहीं हुआ है । जो होना था सो हो गया। अब मैं पुत्री कुबेरदत्ता को उसके घर भेज देती हूं। तुम कुछ दिनों के लिये दूसरे नगरों में घूम आाम्रो । वहां से तुम्हारे लौटते ही में किसी दूसरी कन्या से तुम्हारा विवाह कर दूंगी ।'
"
तदनन्तर कुबेरदत्त की माता ने कुबेरदत्ता को उसके घर पहुंचा दिया और कुबेरदत्त भी अपने साथ पर्याप्त सम्पत्ति एवं पाथेय ले कर किसी अन्य नगर के लिये प्रस्थित हुआ |
कुबेरदत्ता ने भी अपने घर पहुंच कर अपनी माता से अपने तथा उस अंगूठी के सम्बन्ध में शपथ दिला कर पूछा । श्रेष्ठिपत्नी ने भी यथाघटित सारी घटना उपे सुना दी।
सारी घटना सुन कर कुवेरदत्ता को संसार से विरक्ति हो गई। उसने प्रवर्तिनी माध्वी के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और निरतिचार पंचमहाव्रतों का पालन वरती हुई वह उनके साथ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करने लगी । उसने प्रवर्तिनी से प्राज्ञा लेकर वह अंगूठी जिसके कारण कि उसे निर्वेद हुआ था, अपने पास रख ली । विशुद्ध चारित्र के पालन और कठोर तपश्चरण में कुछ ही वर्षो पश्चात्
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