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कुबेरदत्त कु० का प्रा०
[0] श्रुतकेवली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी
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माता द्वारा बार-बार बल दिये जाने पर कुबेरसेना ने कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता के नाग की अंगूठियां बनवाई और जब वे दोनों शिशु ग्यारह दिन के हुए तब कुबेरसेना ने उनके नाम की अंगूठियां सूत्र में पिरोकर उनके गले में बांध दीं और उन्हें बहुमूल्य रत्नों की दो गठरियों के साथ दो छोटी नावों के
कार के लकड़ी के सन्दूकों में रख दिया। रात्रि के समय कुबेरसेना ने अपने उन दोनों बच्चों सहित उन दोनों सन्दूकों को यमुना नदी के प्रवाह में बहा दिया ।
नदी के प्रवाह में तैरती हुई वे दोनों सन्दूकें सूर्योदय के समय शोरिपुर नामक नगर के पास पहुंचीं। वहां यमुनास्नान करने हेतु आये हुए दो श्रेष्ठिपुत्रों जब नदी में सन्दूकों को आते देखा तो तत्काल उन्होंने दोनों सन्दूकों को नदी से बाहर निकाल लिया। उनमें दो शिशुओं को नामांकित मुद्रिकाओं एवं रत्नों की पोटलियों के साथ देख कर उनको बड़ी प्रसन्नता हुई । परस्पर विचारविनिमय के पश्चात् एक श्रेष्ठिपुत्र बालक को और दूसरा बालिका को अपने घर ले गया । उन दोनों श्रेष्ठिपुत्रों एवं उनकी पत्नियों ने उन शिशुत्रों को अपनी ही संतान के समान रखा और बड़े दुलार एवं प्यार से पालन-पोषण करते हुए क्रमशः शिक्षरण देकर उन्हें योग्य बनाया ।
जिस समय कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता ने युवावस्था में पदार्पण किया, उस समय समान वैभव वाले उन श्रेष्ठियों ने उन्हें एक दूसरे के अनुरूप और योग्य समझ कर बड़े समारोह के साथ उन दोनों का परस्पर पाणिग्रहरण करवा दिया । " विवाह के दूसरे दिन द्यूतक्रीड़ा की लौकिक रीति का निर्वहन करते समय कुबेरदत्ता की सहेलियों ने कुबेरदत्त की अंगूठी उतार कर कुबेरदत्ता की अंगुली में और कुबेरदत्ता की अंगूठी कुबेरदत्त की अंगुली में पहना दी। कुबेरदत्ता ने अपनी अंगूठी के साथ उसकी साम्यता देख कर बड़े ध्यान से उसे देखा । यह देख कर उसे कुतूहल के साथ ही साथ बड़ा आश्चर्य हुआ कि दोनों अंगूठियों की बनावट और उन पर अंकित अक्षरों में किंचितमात्र भी अन्तर नहीं है । वह सोचने लगी कि इन दोनों अंगूठियों की इस प्रकार की समानता के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये । उसने स्मृति पर बल देते हुए मन ही मन कहा - "हमारे पूर्वजों में इस नाम का कोई पूर्वज हुआ हो, यह बात भी प्राज तक किसी के मुंह से नहीं सुनी । इसके साथ ही साथ मेरे अन्तर्मन में इस कुबेरदत्त के प्रति उस प्रकार की भावना स्वल्पमात्र भी उत्पन्न नहीं हो रही है, जिस प्रकार की कि एक पत्नी के मन में अपने पति के प्रति उत्पन्न होनी चाहिये ।'
उसके मन में दृढ़ विश्वास हो गया कि इस सब के पीछे अवश्य ही कोई न कोई गूढ़ रहस्य होना चाहिये। यह विचार कर कुबेरदत्ता ने अपनी अंगुली में से " ततो नवीन यौवनिकानिकामरामणीयकरं जितहृदयाभ्यां ताभ्यामिभ्याभ्यां सुमहशरूपरेखाविशेषो विशेषफलवानस्त्विति कृतस्तयोरेव परिणयः ।
[ जम्बू चरित्र, ( रत्नप्रभसूरिरचित ) उपदेशमाला दोघट्टीवृत्ति ]
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