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अवंती का प्रद्योत राजवंश]
केवलिकाल : प्रार्य जम्बू
२८३
एवं साध्वी धारिणी की नासिका, ललाट एवं लोचनों की साभ्यता से सब को दृढ़ विश्वास हो गया कि धारिणी मणिप्रभ की माता है और मणिप्रभ उसका पुत्र ।
__सहसा मणिप्रभ के हर्ष गद्गद् कण्ठ से हठात् उद्भूत हुए संसार के समस्त स्नेह और ममता के प्रागर - "मां ! मेरी मो!" इन मधुर स्वरों ने सभी उपस्थित नारियों के हृदयों को पिघला कर पानी-पानी कर दिया और वह पानी बने हृदय प्रांसुओं की झड़ियां बन कर प्रति प्रबल प्रवाह के साथ प्रवाहित हो उठे। कुछ क्षरणों तक सभी की अन्तरात्माएं उस अथाह अवसागर में स्नान करती हुई एक अनिर्वचनीय प्राह्लाद का अनुभव करती रहीं।
मणिप्रभ ने नीरवता को भंग करते हुए कुछ दुविधा भरे स्वर में कहा"पूज्ये ! मेरा रोम-रोम इसी समय ज्येष्ठार्य के चरणों पर लुंठित होने हेतु उत्कण्ठित हो रहा है पर जब तक वे इस तथ्य से अवगत हो मुझे अपने हृदय से लगाने के लिये उद्यत न हों तब तक मेरी ओर से किया गया इकतरफा मैत्री प्रस्ताव कायरता का प्रतीक और कौशाम्बी के राजवंश के लिये अपयश का जनक बन सकता है।"
."मैं अभी अवन्तीसेन के पास जाकर उसे वस्तुस्थिति से.परिचित किये देती हूं।" यह कह कर साध्वी धारिणी राजप्रासाद से प्रस्थित हो अवन्ती के सैन्यशिविर पर पहुंचीं । प्रतिहार से साध्वी के प्रागमन का समाचार सुनते ही अपनी अंगपरिचारिकामों सहित प्रवन्तीसेन ने अपने शिबिरकक्ष के द्वार पर उपस्थित हो साध्वी को बड़ी श्रद्धा के साथ वन्दन किया। कुछ वृद्धा परिचारिकामों ने धारिणी के चरण पर स्फुट प्राकृतिक चिह्न को देखते ही उसे तत्काल पहिचान लिया। एक परिचारिका ने विस्फारित नेत्रों से प्रवन्तीसेन की पोर देखते हुए पाश्चर्य एवं उत्सुकतामिश्रित स्वर में कहा - "महाराज ! ये तो हमारी स्वामिनी और उज्जयिनी के महाप्रतापी-चिरायु राजराजेश्वर की मातेश्वरी हैं।"
माता की ममतामयी गोद से चिरवंचित पुत्र की, अपनी जननी को पहचानते ही क्या दशा हुई होगी, यह कल्पना की पहुंच के परे है। बड़े-बड़े भूपतियों के भालों को भूलुण्ठित करने वाले प्रवन्तीपति प्रवन्तीसेन का मातृचरणों में झुकता हुमा भाल सहसा भूमि से छू गया। शिशु के समान सुबकियां भरते हुए प्रवन्तीसेन ने कहा- "मां! तुम इतने वर्षों तक अपने लाड़ले से दूर क्यों रही ?"
साध्वी धारिणी ने प्रवन्तीसेम को प्राश्वस्त करते हुए संक्षेप में समस्त घटनाचक्र का विवरण सुनाने के पश्चात् कहा-"प्रवन्तीसेन ! प्रसव के तत्काल ' पतीतो भणति पनि भोसरामि तापम बनसो, भकति संवि बहेहि,
[भावायकपरिणा, उत्तरमाग, पृ. ५.]
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