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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चोरों का स्तंभन उतारे जा रहे हैं; तो उन्होंने घनरव गम्भीर स्वर में कहा - "तस्करो ! तुम लोग इन अतिथियों के प्राभूषण क्यों उतार रहे हो?"
जम्बूस्वामी के मुख से उपरोक्त वाक्य के निकलते ही प्रभव के सभी ५०० साथी चित्रलिखित की तरह, जहां जिस मुद्रा में थे, वहां उसी रूप में स्तंभित हो गये।
अपने ५०० साथियों को चित्रलिखित से निश्चल मुद्रा में खड़े देख कर प्रभव को बड़ा आश्चर्य हुमा । उसने अपने उन साथियों में से कई का नाम ले ले कर उन्हें पुकारा, उनके कंधे पकड़-पकड़ कर झकझोरा पर सब व्यर्थ । वे सब ज्यों के त्यों खड़े के खड़े ही रह गये । प्रभव ने इसका कारण जानने के लिये एक के बाद एक, सारे कक्षों को देख डाला पर सर्वत्र निस्तब्धता और निद्रा का साम्राज्य था। जब वह जम्बूकुमार के शयनकक्ष की ओर बढ़ा तो उसने वहां तारिकाओं से घिरे हुए शरदपूरिंणमा के प्रकाशपुंज पूर्णचन्द्र के समान अपनी पाठ नववधुनों के साथ सुखासन पर विराजमान जम्बूकुमार को देखा । प्रभव ने जम्बूकुमार को प्रगाढ़ निद्रा में सुला देने हेतु अपनी अवस्वापिनी विद्या का प्रयोग किया किन्तु उसे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि उसकी कभी नहीं चूकने वाली उस विद्या का जम्बूकुमार पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा है ।
प्रभव का जम्बू से निवेदन प्रभव ने हाथ जोड़ कर जम्बूकुमार से कहा :- “भाग्यवान् ! मुझे निश्चय हो गया है कि आप कोई महापुरुष हैं । आपने कदाचित् सुना होगा, मैं जयपुर नरेश विन्द्यराज का बड़ा पुत्र प्रभव हूं। आपके प्रति मेरे हृदय में मैत्री के भाव प्रबल वेग से उमड़ रहे हैं। मैं आपके साथ मैत्री-सम्बन्ध चाहता हूं। कृपा कर आप मुझे अपनी "स्तंभिनी" पर मोचनी" विद्याएं सिखा दीजिये। मैं आपको सालोद्घाटिनी और अवस्वापिनी नामक दो विद्याएं सिखाये देता हूं।"
इस पर जम्बकूमार ने कहा- "सुनो प्रभव ! वस्तुस्थिति यह है कि मैं अपने समस्त कुटुम्बी जनों और अपरिमित वैभव का परित्याग कर कल ही प्रातःकाल प्रव्रज्या ग्रहण करने जा रहा हैं। वैसे मैंने भाव से सभी प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भों का परित्याग कर दिया है । में पंचपरमेष्ठि का ध्यान करता हूं प्रतः मुझ पर किसी विद्या का अथवा देवता का प्रभाव नहीं हो सकता । मुझे इन पापानमन्धी विद्याओं से कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि ये सब घोरातिघोर दुःखपूर्ण. दुर्गतियों में भटकाने वाली हैं । न मेरे पास कोई स्तंभिनी विद्या है और न विमोचनी ही। मैंने तो प्रार्य सुधर्मा स्वामी से भवविमोचनी विद्या ग्रहण कर रखी है।"
'बयररेण तेरण तेरणा ते, सम्वे भिया तमो भवरणे । पित्तनिहियन जाया, प्रहवा पाहाणघड़ियन्त्र ।।२१७।। [जम्बू-चरित्र, रत्नप्रभसूरिरचित]
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