________________
अवंती का प्रद्योत राजवंश] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू
२८५ भाइयों की प्रार्थना पर साध्वी धारिणी ने भी अपनी महत्तरा और अन्य साध्वियों के साथ उज्जयिनी की ओर विहार किया। स्थान-स्थान पर पड़ाव डालते हुए अवन्तीसेन और मणिप्रभ कौशाम्बी तथा उज्जयिनी के बीच में वत्सका नदी के तट पर पहुंचे।
उस समय तक धर्मयश मुनि यथाशक्य विहारक्रम से वहां पहुंच चुके थे और उन्होंने वत्सका नदी के पास के एक पहाड़ की गुफा में अनशन प्रारम्भ कर दिया था। उस निर्जन एकान्त स्थान में अनशन प्रारम्भ करने पर भी लोगों से यह बात छुपी न रह सकी और अनशन में स्थित धर्मयश मुनि के दर्शन करने के लिये दूर-दूर से श्रद्धालु नर-नारी बड़ी संख्या में आने लगे।
बहुत बड़ी संख्या में नर-नारियों के समूहों को अनवरत रूप से पहाड़ पर चढ़ते-उतरते देखकर उन दोनों राजाओं ने चरों से वहां लोगों के आवागमन का कारण पूछा। धर्मयश मुनि द्वारा अनशन किये जाने के समाचार सुनकर दोनों भाइयों ने वत्सका नदी के तट पर दोनों सेनाओं का पड़ाव डाला। धारिणी आदि साध्वियां, अवन्तीसेन, मणिप्रभ्र और उन दोनों राजाओं की सेनाओं ने पहाड़ पर चढ़कर गुफा में स्थित अनशन किये हुए मुनि के दर्शन किये । हजारों कण्ठों ने जयघोष कर मुनि के अपूर्व त्याग, वैराग्य और अनशन की महिमा का गान किया। मुनि के अनशन के अन्त तक साध्वी धारिणी की उसी स्थान पर ठहरने की इच्छा जानकर उन दोनों भाइयों ने भी अपनी सेनाओं के साथ उस ही स्थान पर रहने का निश्चय किया। मुनि धर्मयश के अनशन की यशोगाथाएं दिग्दिगन्त में दूर-दूर तक गाई जाने लगी। दिन भर उस पर्वत पर अनशनस्थ मुनि के दर्शनार्थ पाने वाले यात्रियों का प्रावागमन बना रहता । अन्त में मुनि ने लम्बे अनशन के पश्चात् देहत्याग किया। अपूर्व श्रद्धा और सम्मान के साथ धर्मयशमुनि के पार्थिव शरीर का राजकीय ऋद्धि के साथ अन्तिम संस्कार किया गया। इस प्रकार किंचित्मात्र भी यश की कामना न करने वाले धर्मयश मुनि का यश चारों ओर छा गया।'
तदनन्तर अवन्तीसेन और मणिप्रभ ने उज्जयिनी की ओर प्रस्थान किया। महत्तरिका ने भी धारिणी प्रादि साध्वियों के साथ उज्जयिनी की भोर विहार किया।
कौशाम्बीपति मणिप्रभ का बड़े महोत्सव के साथ प्रवन्तीसेन ने उज्जयिनी में प्रवेश करवाया। मणिप्रभ के सम्मान में राज्य और उज्जयिनी की प्रजा दोनों ही अोर से मानन्दोल्लास के साथ अनेक उत्सवों के प्रायोजन किये गये। कतिपय दिनों तक अपने अग्रज के साथ उज्जयिनी में रहने के पश्चात् मणिप्रभ अपने राज्य की राजधानी कौशाम्बी में लौट पाया।
'...तामो भणंति-भत्तपच्चक्सातमो एरच ता पम्हे मच्छामो, ताहे ते दोवि रायाणो ठिता दिवे दिवं महिमं करेंति, कालगता एवं ते गया रायाणो, एवं तस्स परिणच्छमाणस्सवि
जाता, इतरस्स इच्छमाणस्स न जाता पूजा। [मावश्यक पूणि, उत्तर माग, पृ० १९१] Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org