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श्रुतवली-काल
वीर निं० सं० ६४ में केवलिकाल की समाप्ति के साथ ही श्रुतकेवलिकाल प्रारम्भ हुआ । श्रुतकेवली का मतलब है समस्त श्रुतशास्त्र अर्थात् द्वादशांगी का केवली के समान पारगामी ज्ञाता एवं व्याख्याता । श्रागम में श्रुतकेवली को जीव, अजीव प्रादि समस्त तत्वों के व्याख्यान में केवली के समान ही समर्थ बताया गया है |
श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता के अनुसार श्रुतकेवलिकाल वीर नि० सं० ६४ से वीर नि० सं० १७० तक रहा और श्रुतकेवलिकाल की उस १०६ वर्ष अवधि में निम्नलिखित ५ श्रुतकेवली हुए :
१. प्रभवस्वामी
२. सय्यंभवस्वामी
३. यशोभद्रस्वामी
४. संभूतविजय - और
५. भद्रबाहुस्वामी
दिगम्बर मान्यता :- दिगम्बर परम्परा के अधिकांश ग्रन्थों एवं प्रायः सभी पट्टावलियों में वीर नि० सं० ६२ से वीर नि० सं० १६२ तक कुल मिला कर १०० वर्ष का श्रुतकेवलिकाल माना गया है। दिगम्बर परम्परा द्वारा सम्मत ५ श्रुतकेवलियों के नाम एवं उनका प्राचार्यकाल इस प्रकार है :
१. विष्णुनन्दि अपरनाम नन्दि
२. नन्दिमित्र
३. अपराजित ४. गोवर्धन
५. भद्रबाह प्रथम
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वी० नि० सं० ६२ से ७६
वी० नि० सं० ७६ से ६२
दी० नि० सं०
वी० नि० सं० वी० नि० सं०
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२ से ११४
११४ से १३३ १३३ से १६२
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