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अवंती का प्रयोत राजवंश केवलिकाल : मायं जम्बू
२८१ धारिणी ने अपना परिचय देते हए अपने साथ घटित हई सारी घटनाएं अपनी गुरुणी के समक्ष निवेदित कर दीं। गर्भकाल पूर्ण होने पर रात्रि के समय धारिणी ने एकान्त स्थान में पुत्र को जन्म दिया। उसके पुत्र के सम्बन्ध में लोकों में निरर्थक चर्चा न चल पड़े, इस अभिप्राय से धारिणी ने अपनी नामांकित मुद्रिका, पाभरण पौर अपने पति के प्राभरणों की गठरी प्रच्छन्न स्थान से खोद कर निकाली और उसके साथ उस बालक को कौशाम्बी के राजप्रासाद के प्रांगण में ले जा कर रख दिया। उसका पुत्र किसी उचित स्थान पर पहुंचता है अथवा नहीं, यह देखने के लिये धारिणी एक अन्धकार-पूर्ण स्थान में बैठ गई। उसे वहां बैठे कुछ ही क्षण व्यतीत हुए होंगे कि नवजात शिशु चिल्लाया। शिशु का रुदन सुन कर कौशाम्बी नरेश अजितसेन प्रासाद से नीचे पाया और मणिरत्नाभरणों की गठरी सहित उस बालक को उठा कर अपने प्रासाद में ले गया। प्रजितसेन ने नवजात शिशु को राजमहिषी के अंक में सुलाते हुए कहा- "देवि! देव ने हमें इस राज्य का उत्तराधिकारी दिया है।" राजदम्पति निस्संतान था अतः पुत्र के समान हो उस शिशु का राजकीय ऐश्वर्य और लाड-प्यार के साथ लालन-पालन होने लगा। प्रवन्तीसेन ने उस शिशु को अपना पुत्र घोषित करते हुए उसका नाम मणिप्रभ रखा।
मन ही मन अपने पुत्र के भाग्य की सराहना करती हई साध्वी धारिणी अपनी गुरुणी के पास लौट गई और उनसे निवेदन कर दिया कि मृत बालक का जन्म हना था अतः वह उसे एकान्त में छोड़ पाई है। पुत्र के प्रति अपने उत्तरदायित्व से उन्मुक्त हो धारिणी निरतिचार साध्वो धर्म का पालन करने लगी।
उधर उज्जयिनीपति प्रवन्तीवर्धन अनुताप की अग्नि में जलने लगा। अपने निरपराध भाई की हत्या करवाने का और धारिणी के न मिलने का शोक उसे महनिश संतप्त करने लगा। उसने अपने उस जघन्य अपराध के प्रायश्चित्तस्वरूप अपने भाई राष्ट्रवर्षन और देवी धारिणी के पुत्र प्रवन्तीसेन को उज्जयिनी का प्रधीश्वर बना कर लगभग वीर निर्वाण संवत् २४ में आर्य जम्बूस्वामी के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण करली।
धारिणी यदा-कदा कौशाम्बी जाने पर राजप्रासाद में जाती रहती थी। कौशाम्बीराज के अन्तःपुर की सभी स्त्रियां साध्वी धारिणी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखने लगीं और बालक मणिप्रभ भी उसके प्रति बड़ा स्नेह रखने लगा। क्रमशः मणिप्रभ युवा हुमा मोर भजितसेन की मृत्यु के पश्चात् वह कौशाम्बी के राज्यसिंहासन पर पासीन हुमा।
कौशाम्बी-मृप शतानीक और प्रवन्तीपति चण्डप्रद्योत के समय से इन दोनों राजवंशों में देर-विरोष चला पा रहा था । किसी एक कारण को ले कर अवन्तीसेन ने अपनी बड़ी शक्तिशाली सेना के साथ कौशाम्बी पर माक्रमण कर दिया।
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