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२७६ ... जन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वस्तुतः नन्द कौन था ? उदायी दिये हुए हैं ।' इनसे पूर्व के इस वंश के राजाओं के नाम उपलब्ध जैन ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होते । ऐसी दशा में वायुपुराण, श्रीमद्भागवतपुराण प्रादि पौराणिक ग्रन्थों में जो नागदशकों (शिशुनागवंशी दश राजाओं) के नाम दिये गये हैं, उनमें प्रथम ३ राजाओं, शिशुनाग, काकवर्ग और क्षेमधर्मा के नाम इस सूची में सर्वोपरि सम्मिलित करने और इस सूची के अन्त में नन्दिवर्द्धन और महानन्दि के नाम शिशुनागवंशियों में सम्मिलित करने पर ही नागदशक राजाओं की सूची पूर्ण होती है।
नागदशकों की नामपूत्ति के लिये सनातन परम्परा के पुराणों में परिणत शिशुनागवंशियों के उपरिलिखित तीन पूर्वजों के नामों को ग्रहण करने और प्रामारिणक मानने में किसी को किचित्मात्र भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये क्योंकि पूर्वकाल में घटित घटनाक्रम के संकलन एवं प्रालेखन का नाम ही इतिहास है। . इतिहास में किसी देश, धर्म, जाति अथवा संस्कृति का विभेद नहीं होता, वह तो वस्तुतः अनादिकाल से अनवरतरूपेण घटित होने वाली घटनाओं का प्रक्षय्य, अथाह एवं अपार सागर है, जिसमें असंख्य गंगानों के पूर के समान प्रतिदिन नवीनतम घटनामों के प्रवाह पाकर सम्मिलित एवं संचित होते रहते हैं। उस सबका संकलन प्रालेखन अथवा परिज्ञान त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ के अतिरिक्त और किसी मानव की शक्ति की परिधि में नहीं पाता। उस अथाह इतिहास सागर के गहन तल में गोते लगा लगाकर प्राचीनकाल से महान् प्राचार्य महर्षि और परमार्थी विद्वान् अपने-अपने प्रिय एवं अभीष्ट विषय का इतिहास खोज कर लिखते पाये हैं। इस बात को हमें सदा ध्यान में रखना होगा कि पागमों, पुराणों एवं प्राचीन ग्रन्थों को उन प्राचार्यों, महर्षियों, महात्माओं और विद्वानों ने लिखा है - जिन्होंने समस्त ऐहिक प्राकर्षणों, लोकेषणाओं और अपनी कर्मेन्द्रियों तथा भावेन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनके समस्त प्रालेखन का उद्देश्य केवल "जनहिताय" ही रहा। किसी तथ्य की स्मृति से स्खलना, पारम्परिक मान्यताभेद, विस्मृति ' प्रतीताबायां क्षितिप्रतिष्ठितं नगरं, जितशत्रु राजा, तस्य नगरस्य वस्तून्युत्सनानि, मन्य नगरस्थानं वास्तुपाठकगियति, तैरेकं चरणकक्षेत्र अतीव पृष्पः फलंश्चोपपेतं दृष्ट्वा षरणकनगरं निवेशितं..."तत्र कुशाग्रपुरं जातं, तस्मिंश्च काले प्रसेनजित् राजा तच्च नगरं पुनः पुनः अग्निना दह्यते, तदा लोकभयजनननिमित्तं घोषयति यस्य गृहेऽग्निरुत्तिष्ठति स नगरात् निष्काश्यते, तत्र महानसिकानां प्रमादेन राज्ञ एव गृहात् अग्निरुत्थितः, ते सत्यप्रतिज्ञा राजानः निर्गतो नगरात् तस्मात् गव्यूतमात्रे स्थितः, तदा दण्डिकभटभोजका वरिणजाच तत्र वजन्तः भणन्ति क्व जप ? प्राह राजगृहमिति, कुत प्रायाच ? राजगृहात् एवं नगरं राजगृहं जातं यदा च राशो गृहेऽग्निरुत्थितस्ततः कुमारा ययस्य प्रियमश्वो हस्ती वा तत्तेन निष्काशित श्रेणिकन ढक्का नीता । राजा पृच्छत्ति केन कि नीतमिति ? भन्यो भगति-मया हस्ती, प्रश्व एवमादिः ; श्रेणिक: पृष्टः-सम्भा, तदा रामा भणति श्रेणिकं- एष ते मारो भम्भेति? श्रेणिको मसति-प्रोम स व रामोज्यन्तप्रियः, तेन तस्य माम कृतं भस्मसार इति
[मालायक हारिमनीया वृत्ति, पत्र ६७०-७१ पारि
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