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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ वस्तुतः नन्द कौन था ?
" महानन्दी की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुआ कालोपेत ( कृतान्तोपम) महापद्म 'नामक पुत्र समस्त क्षत्रियों के अनन्तर होगा । वह एकराट् और एकच्छत्र राजा होगा । उसके समय से ही प्रायः सभी राजा शूद्र होंगे। वह समस्त क्षत्रियों से बलपूर्वक कर ग्रहरण कर विपुल धन एकत्रित करेगा श्रौर २८ वर्ष तक पृथ्वी पर शासन करेगा। उसके ८ पुत्र होंगे जो महापद्म की मृत्यु के पश्चात् क्रमशः राजा होंगे और वे कुल मिलाकर १२ वर्ष तक राज्य करेंगे । "
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इस प्रकार श्रीमद्भागवतपुराण श्रौर. वायुपुराण के अनुसार नन्दिवर्द्धन और महानन्दी जिन्हें जैन परम्परा के ग्रन्थों में प्रथम नन्द और द्वितीय नन्द बताया गया है, विशुद्ध नागवंशीय राजा थे तथा महापद्म नन्द से शूद्र ६ नन्द राजानों का राज्यकाल प्रारम्भ होता है ।
धार्मिक प्रतिद्व ंद्विता के कारण पुरातन काल में हुए धार्मिक संघर्षो दुoकालों, विदेशी प्राक्रमणां प्रादि के कारण प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री के कतिपय अंशों में नष्ट हो जाने की दशा में यह संभव माना जा सकता है कि साहित्य का नव-निर्वाण करते समय जैन विद्वानों ने शूद्रा स्त्री के गर्भ से उत्पन्न महापद्म नन्द के जीवन की घटनाओं को नन्दिवर्द्धन के जीवनवृत्त के साथ जोड़कर उसे ही प्रथम नन्द समझ लिया हो। इस प्रकार की त्रुटि होना असंभव नहीं है क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम भाग में यह बताया जा चुका है कि भगवान् महावीर के छठे एवं सातवें गणधर प्रार्य मंडित और मौर्यपुत्र को कतिपय ख्यातनामा प्राचार्यों ने सहोदर बताकर उनकी समान नाम वाली माताओं को एक ही महिला मान लिया और अपने इस कथन की पुष्टि में यहां तक लिख दिया कि मंडित के पिता धनदेव की मृत्यु के पश्चात् मंडित की माता विजया ने मौर्य नामक एक ब्राह्मरण नवयुवक से विधवा-विवाह कर लिया और मौर्य से विजया ने मौर्यपुत्र को जन्म दिया। जब कि वस्तुस्थिति यह है कि आगमों में और स्वयं उन प्राचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में मौर्यपुत्र को मंडित से प्रायु में १३ वर्ष ज्येष्ठ बताया गया है ।
इस प्रकार की और भी अनेक भूलें हुई हैं । अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के प्रकरण में प्रागे बताया जायगा कि किस प्रकार एकादशांगी के अंशधर,
" महानन्दिसुतश्चापि शूद्रायां कालसंवृतः ।
उत्पत्स्यते महापद्म: सर्वक्षत्रान्तरे नृपः ।। १८५ ।। ततः प्रभृति राजानो भविष्याः शूद्रयोनयः । एकराट् स महापद्म एकच्छत्रो भविष्यति ।। १८६ ।। प्रष्टाविंशतिवर्षारिण पृथिवीं पालयिष्यति । सर्वक्षत्राहृतोद्धृत्य भाविनोऽर्थस्य वै बलात् ।।१८७।।
सहस्रास्तत्सुता ह्यष्टी समा द्वादश ते नृपाः ।
महापद्मस्य पर्याये भविष्यन्ति नृपाः क्रमात् ।।१८८।। [ वायुपुराण, प्र० ६१] श्लोक १८८ के प्रथम पाद में सहस्रा के स्थान पर साहसा होना चाहिये । सम्पादक
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