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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ पाटलीपुत्र का निर्माण
पूर्ण विश्वास होने के कारण सुरक्षा व्यवस्था उन दिनों में केवल पौषधशाला के बाहर ही रहती थी । पौषधशाला के अभ्यन्तर कक्ष में किसी प्रकार की सुरक्षा व्यवस्था नहीं रहती । अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उस विद्रोही राजकुमार ने एक प्राचार्य की सेवा में उपस्थित हो निर्ग्रथ-दीक्षा ग्रहण की। अपने अन्तर में प्रतिशोध की आग को गुप्त रखते हुए वह प्रकट में सभी प्रकार के श्रमणाचार का समीचीन रूप से पालन करने लगा । विनय, परिचर्या आदि गुणों के कारण वह स्वल्प समय में ही सब साधुयों का विश्वासपात्र और प्रीतिभाजन बन गया ।
इस प्रकार उस विद्रोही राजकुमार को श्रमणाचार का पालन करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये । विविध क्षेत्रों में विहार करते हुए जैनाचार्य एक दिन पाटलीपुत्र नगर में पधारे । अष्टमी के दिन उदायी ने उन प्राचार्य को राजप्रासाद में अवस्थित अपनी पौषधशाला में उपदेश देने के लिये प्रार्थना की । उदायी की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उन प्राचार्य महाराज ने अपने उस छद्मवेषधारी शिष्य को उपकरणादि ले कर राजप्रासाद में चलने के लिये कहा । अपने चिरप्रतीक्षित कार्य की सिद्धि का समय सन्निकट आया समझ कर वह छद्मवेषधारी शिष्य मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने अन्य उपकरणों के साथ-साथ अपनी दीक्षा के समय से ही छुपाकर साथ में रखी हुई कंकलोहनिर्मित छुरी भी अपने साथ रख ली और वह अपने धर्माचार्य का पदानुसरण करता हुआ राजप्रासाद में पहुंच गया । उदायी ने भक्तिपूर्वक आचार्य और उनके शिष्य को सविधि वन्दन कर पौषव्रत ग्रहरण किया । श्राचार्य श्री ने राजकीय पौषधशाला में प्रवचन दिये । दिन भर उदायी ने प्राचार्य महाराज की सेवा में रह कर उनसे धर्मचर्चा की। रात्रि में भी एक प्रहर तक धर्मचर्चा का क्रम चलता रहा । तदन्तर अपने शिष्य सहित धर्माचार्य और महाराजा उदायी ने पोषधशाला में ही शयन किया । महाराजा उदायी और श्राचार्य को निद्राधीन समझ कर वह छद्मवेषधारी साधु चुपके से उठा और बड़ी सावधानी से उदायी के पास प्राया । उसने १२ वर्ष पूर्व अपने पास छुपा कर रखी हुई तीक्ष्ण छुरी को दाहिने हाथ में दृढ़तापूर्वक पकड़ा और उससे उदायी की गर्दन काट दी । उदायी की हत्या करने के पश्चात् वह साधु वेषधारी विद्रोही राजकुमार पौषधशाला से बाहर निकला । "यह सांधु शारीरिक शंका की निवृत्ति हेतु बाहर जा रहा होगा" यह समझ कर द्वारपालों ने उसे नहीं रोका और इस प्रकार वह उदायी का हत्यारा पाटलीपुत्र से भाग निकलने में सफल हुआ ।
उदायी के धड़ श्रीर मस्तक से बहे रुधिर से प्रार्द्र होने पर प्राचार्य की निद्रा भंग हुई । उदायी की कटी हुई ग्रीवा के पास ही लहू से लथपथ छुरी नौर अपने शिष्य की अनुपस्थिति को देख कर उन्हें वस्तुस्थिति को समझने में अधिक विलम्ब नहीं हुआ । उन्हें तत्काल विश्वास हो गया कि उनके शिष्य के वेष में वस्तुतः उदायी का कोई घोर शत्रु छुपा हुआा था भोर वह उदायी की हत्या करने के पश्चात् वहाँ से पलायन कर गया है। जिनशासन और जिनवाणी को अप्रकीति
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