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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [म० भ० वंश का उद्भव कल्पाक जिस मार्ग द्वारा अपने घर से पाटलिपुत्र नगर में जाता-पाता था, उस ही मार्ग पर एक ब्राह्मण रहता था। उसकी एक कन्या जलोदर रोग से ग्रस्त थी प्रतः अनिन्ध सुन्दरी होते हुए भी किसी ब्राह्मण कुमार ने उसके साथ विवाह करना स्वीकार नहीं किया। उस कन्या के रजस्वला होने पर ब्राह्मण बड़ा चिन्तित हुप्रा और अपने आपको भ्रूण हत्या करने वाले अपराधी के तुल्य पापी समझते हुए अपनी कन्या के विवाह का कोई उपाय सोचने लगा। बहुत सोचविचार के पश्चात् उसे एक उपाय सूझा। उसने अपने घर के सम्मुख मार्ग के पास ही कूपतुल्य एक गड्डा खोदा और कल्पाक को इस मार्ग से आते देखकर उसने अपनी कन्या को उस गड़े में ढकेल दिया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा- “जो व्यक्ति मेरी कन्या को इस गहरे गड्ढे में से निकालेगा उस ही को मैं अपनी यह कन्या दे दूंगा।"
कल्पाक कन्या के गड्ढे में गिर पड़ने की बात सुनते ही दौड़ कर गड्ढे के पास गया। उस ब्राह्मण के अन्तिम वाक्य को कल्पाक ने नहीं सुना । वह दया से द्रवीभूत हो गड्ढे में उतरा और उस कन्या को पकड़ कर गड्ढे से बाहर ले प्राया। ब्राह्मण ने कल्पाक से कहा- "मैंने उच्च-स्वर में कहा था कि जो इस कन्या को इस कूपिका से निकालेगा उस ही को में यह कन्या दूंगा। मेरी उस प्रतिज्ञा को सुन कर आपने इसे निकाला है अतः आप इसके साथ पाणिग्रहण कीजिये । आप सत्यसन्ध हैं।" कल्पाक उस ब्राह्मण की बात सुन कर अवाक् खड़ा का खड़ा रह गया। अन्ततोगत्वा विवाह करने की इच्छा न होते हुए भी उसे उस ब्राह्मण-कन्या के साथ विवाह करने की स्वीकृति देनी पड़ी। सकल विद्यानिष्णात कल्पाक ने आयुर्वेदिक औषधियों के प्रयोग से उस ब्राह्मण कन्या को जलोदर रोग से विमुक्त कर उसके साथ विवाह कर लिया।
- कल्पाक की विद्वत्ता और प्रत्युत्पन्नमती सम्बन्धी यशोगाथाएं सुन कर महाराज नन्द ने उसे अपना कुमारामात्य बनाने का निश्चय कर अपने पास बुलाया और उसे मगध राज्य के प्रधानामात्य का पद स्वीकार करने की प्रार्थना की। कल्पाक ने नन्द की प्रार्थना को अस्वीकृत करते हुए कहा - "राजन् ! समय पर दो रोटी के अतिरिक्त मुझे और किसी प्रकार का परिग्रह बढ़ाने की इच्छा नहीं है। महत्वाकांक्षानों से विहीन मेरे जैसे धर्मभीरु व्यक्तियों के लिये अमात्य जैसे गुरुतर पद के कर्तव्यों का निर्वहन करना सम्भव नहीं। अतः प्राप मुझे क्षमा प्रदान कीजिये, में इस पद को ग्रहण करने में असमर्थ हूं।"
कल्पाक द्वारा अपनी आज्ञा की अवहेलना से नन्द को वड़ा क्षोभ हुआ और वह उसे अपनी इच्छानुसार अपना आज्ञावर्ती अमात्य बनाने के लिये अहर्निश कल्पाक में किसी प्रकार के छिद्र का अन्वेषण करने में प्रयत्नशील रहने लगा। बहुत प्रयास करने पर भी नन्द उस स्वल्पसन्तोषी निरभिलाषी कल्पाक में किसी प्रकार का दोष न पा सका । बहुत सोच-विचार के पश्चात् नन्द ने अपने रंजक
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