________________
२६,
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [नन्दवंश का अभ्युदय सुनाया। उपाध्याय स्वप्नशास्त्र का मर्मज्ञ था। नन्द के मुख से उसके स्वप्नदर्शन की बात सुनकर वह उसे अपने घर ले गया। वहां उसने नन्द को नहला-धुला एवं सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उसके साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। उपाध्याय की पुत्री के साथ पाणिग्रहण संस्कार होने के उपरान्त नन्द उपाध्याय के घर पर ही रहने लगा। उपाध्याय ने नन्द के लिये एक सुन्दर पालकी का प्रबन्ध कर दिया, जिसमें बैठकर नन्द अपनी इच्छानुसार नगर में परिभ्रमण करने लगा।
ममधपति उदायी के कोई पुत्र नहीं था, इसलिये उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी के रूप में, किसको मगध के राज्यसिंहासन पर अभिषित्त किया जाय, यह प्रश्न मंत्रियों एवं अधिकारियों के समक्ष उपस्थित हुआ। बड़े विचार-विनिमय के पश्चात् मन्त्रियों द्वारा उदायी के पट्टहस्ती, प्रमुख प्रश्व, छत्र, कुम्भकलश और चंवरों को मन्त्राभिषिक्त किया गया एवं उन्हें राज्यप्रासाद की परिधि में घूमाया जाने लगा। कुछ समय तक प्रासाद के प्रांगण में घुमाने के पश्चात् पट्टहस्ती, प्रधान अश्व आदि पांचों दिव्य प्रासाद के बाहर आये। पालकी में आसीन नन्द को उधर से निकलते हुए देखकर पट्टहस्ती ने चिघाड़ते हुए अपनी संड से कुम्भकलश को उठाकर उसके जल से नन्द का अभिषेक कर दिया। प्रधानाश्व भी नन्द के पास पहुंचा और नन्द को उसने अपनी पीठ पर बैठा लिया। ज्योंही नन्द उस प्रधानाश्व की पीठ पर बैठा त्योंही वह प्रधानाश्व हर्षातिरेकवशात् बड़े जोर-जोर से हिनहिनाने लगा। उदायी का राजछत्र भी स्वतः ही नन्द के मस्तक पर तन गया और नन्द के दोनों ओर मन्त्राधिष्ठित वे दोनों चामर स्वतः ही अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो व्यजित होने लगे।
यह सब चमत्कार देखकर अमात्यों, मन्त्रियों, प्रमुख पोरों एवं नागरिकों ने मिलकर बड़े प्रानन्दोल्लास एवं उत्सव के साथ नन्द का मगध के राज्यसिंहासन पर राज्याभिषेक कर दिया। नन्द का मगध के सिंहासन पर यह राज्याभिषेक वीर निर्वाण के पश्चात् ६० वर्ष व्यतीत हो जाने पर वीर नि० सं० ६१ में हुमा।' प्रारम्भ में नन्द के सामन्तों, द्वारपालों और अंगरक्षकों तक ने उसे नापितपुत्र समझकर उसका सम्मान, प्राज्ञापालन अादि नहीं किया किन्तु कुछ ही समय में उसके प्रबल पूण्य के प्रताप से वे सभी उसकी प्रत्येक प्राज्ञा का अक्षरशः पालन करने लगे। राजा नन्द किसी सुयोग्य एवं विश्वासपात्र व्यक्ति को अपने कुमारामात्य के पद पर नियुक्त करना चाहता था। अतः वह रातदिन किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में रहने लगा।
महान अमात्य वंश का उद्भव पाटलिपुत्र नगर में मगध की राजधानी स्थानान्तरित हो जाने के अनन्तर कपिल नामक एक विद्वान् एवं अग्निहोत्री ब्राह्मगा अपनी गहिरणी के साथ पाटलि' अनन्तरं वर्द्धमानम्वामिनिर्वाणवागरात् ।
गतायां पष्टि वात्समिप नन्दोऽभवन्नृपः ।।४।। [परिशिष्ट पर्व. सर्ग ६)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org