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म० अमात्य वंश का उद्भव केवलिकाल : प्रार्य जम्बू अभियोग प्रस्तुत करने नन्द के प्रासाद में उपस्थित हुआ पर ज्यों ही उस प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों ने देखा कि कल्पाक महाराजा नन्द के प्रति सन्निकट एक उच्चासन पर बैठा है और राजा उसके साथ गूढ मन्त्रणा में निरत हैं, तो वे सभी रंजक भय एवं आश्चर्य से अभिभूत हो बिना कुछ बोले चुपचाप अपने-अपने घरों की ओर लौट गये।
महाराज नन्द ने तत्काल अपने पहले के प्रधानामात्य को अपदस्थ कर कल्पाक को मगध का प्रधानामात्य बनाया। राजा ने कल्पाक को प्रधानामात्य की मुद्रा, चिन्ह, अधिकार एवं सुख-सुविधा प्रादि प्रदान की। प्रधानामात्य का पदभार वहन करने के पश्चात् कल्पाक ने बड़ी कुशलता से शाम, दाम, दण्ड, भेद आदि के प्रयोग से क्रमशः नन्द के समस्त शत्रु राजानों को वश में कर लिया और दूरदूर तक मगध राज्य का विस्तार कर दिया। कल्पाक के नीतिनैपुण्य के कारण प्रथम नन्द की भारत के महान् शक्तिशाली महाराजामों में गणना की जाने लगी। मगध सम्राट उदायी तथा उसके उत्तराधिकारी नन्द (नन्दिवर्डन)
के सम्बन्ध में विमिन माग्यताएं जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि ने परिशिष्ट पर्व में', श्री जिनदास गणि महत्तर ने प्रावश्यक चूरिण में, श्री हरिभद्रसूरि ने मावश्यक वृत्ति में तथा अनेक पूर्वाचार्यों एवं विद्वानों ने कतिपय ग्रन्थों एवं पट्टावलियों में मगधसम्राट् उदायी- की अपुत्रावस्था में हत्या किये जाने का उल्लेख किया है । भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति में एक स्थान पर उदायी की संततिविहीन दशा में हत्या किये जाने का तथा दूसरे स्थल में उदायी द्वारा अपने . उदाययपुत्रगोत्रो हि परलोकमगादिति ।
तत्रान्तरे पंचदिव्यान्यभिषिक्तानि मन्त्रिभिः ।।२३६॥ [परिशिष्टपर्व, सर्म ६] २ रुपिरेण पायरिका सिका, पेन्छति राया विवावाहितो, मा पवयणस्स उड्डाहो होहितिति
पालोइतपरिक्कता अप्पणो सीसं चिदंति, तेवि कालगता, सोवि एवं । इतो य हावियदासो....."सीयाए णगरं हिंडाविषजति, सो य राया अंतेपुरपालेहिं सेज्जावतीए विट्ठो, सहसा उ कूवितं, रातं, अपुत्तोत्ति प्रष्णेण दारेण णीतो, सक्कारितो.....
. [मावश्यकरिण, भा॰ २, पृ० १५०] 3 राजापि प्रसुप्त, तेनोत्याय राज्ञः शीर्षे निवेशिता,....... रुपिरेण प्राचार्याः प्रत्याद्विताः,
प्रेक्षन्ते राजानं म्यापादितं, मा प्रवचनस्य . उड्डाहो भूदित्यालोचितप्रतिक्रान्ता पात्मनः शीर्ष छिन्दन्ति, कालगतास्त एवं । इतश्च नापितशालायां नापितदास उपाध्यायाय कपतियथा ममाचान्त्रेण नगरं वेष्टितं, प्रभाते दृष्टं, स स्वप्नशास्त्रं जानाति, तदा हं नीत्वा मस्तकं पोतं दुहिता च तस्मं दत्ता, दीपितुमारब्धः शिविकया नगरं हिन्ज्यते, सोऽपि राजा अन्तःपुरिकाशययापालिकाभिहष्ट: सहसा, कूजितं, ज्ञातः प्रपुत्र इत्यन्येन द्वारेण नीतः सत्कारितः, प्रश्वोऽधिवासितः, अभ्यन्तरे हिण्डितो मध्ये हिण्डित: बहिनिर्गतो राजकुलात् तं नापितदारकं पृष्ठो लगयति प्रेक्षते च तं तेजसा ज्वलंत राज्याभिषेकेणाभिषिक्तो राजा जातः ।
- [भावश्यक हारिभद्रीया, पत्र ६९०]
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