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म० अमात्य वंश का उद्भव] केवनिकाल : मार्य जम्
२७१ (रंगरेज) से पूछा - "तुम्हारे ही घर की ओर कल्पाक पण्डित रहता है। वह तुमसे कभी अपने वस्त्र रंगवाता है अथवा नहीं ?"
__रंजक ने सांजलि शीश झुकाते हुए उत्तर दिया- "पृथ्वीनाथ ! वे अपने घर के वस्त्र मुझ से ही रंगवाया करते हैं।"
नन्द ने आज्ञासूचक स्वर में कहा- “अब जब कभी वह तुम्हें वस्त्र रंगने के लिये दे तो उन वस्त्रों को उसे लौटाना मत ।"
"जो आज्ञा महाराज !" कह कर रंजक ने नन्द की आज्ञा को शिरोधार्य किया और वह वहां से अपने घर चला गया।
एक दिन कौमुदी महोत्सव का समय समीप पाया समझ कर कल्पाक की पत्नी ने अपने पति से कहा- "कान्त ! मेरे इन बहुमूल्य वस्त्रों को प्राप राजा के रंजक से रंगवा दीजिये।"
कल्पाक ने पहले तो यह सोच कर अपनी पत्नी की बात को उपेक्षा की कि त्योहार के दिनों में राजमान्य रंजक किराये के लोभ में किसी अन्य को वे सुन्दर वस्त्र दे सकता है किन्तु वह अपनी पत्नी के आग्रहपूर्ण अनुरोध को टाल न सका और अन्त में उसने अपनी पत्नी के वस्त्र उस राज-रंजक को रंगने हेतु दे दिये।
. उत्सव के दिन कल्पाक रंजक के घर पर गया और उससे वस्त्र मांगे। राजाज्ञा का अनुपालन करते हुए रजक ने कल्पाक को वस्त्र नहीं लौटाये । कल्पाक अनेक बार रंजक के घर पर वस्त्र लेने गया पर हर बार रंजक ने उसे कोई न कोई बहाना बना कर बिना वस्त्र दिये ही लौटा दिया। इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गये । तृतीय वर्ष का प्रारम्भ होने पर एक दिन कल्पाक पुनः रंजक के घर पर पहुंचा और उसने पूर्ववत् उससे अपने वस्त्रों की मांग की। रंजक द्वारा पुनः एक नया बहाना बनाने और वस्त्र न लौटाने के कारण कल्पाक अत्यन्त क्रुद्ध स्वर में कहने लगा- “ो परमाधम रंजक ! तू बड़ा अद्भुत चोर है, अब तो मेरे वस्त्र भी जीर्ण होने आये हैं। तुमने मुझे बहुत परेशान किया है । पर याद रखना, अब तो मैं अपने वस्त्र तेरे रक्त से रंग कर ही ले जाऊंगा।" यह कह कर कल्पाक क्रुद्ध सर्प की तरह फूत्कार करता हुआ अपने घर की ओर लौट गया।
दूसरे दिन सूर्यास्त हो जाने पर कल्पाक ने अपना छुरा अपनी बगल में छुपाया और वह क्रुद्ध मुद्रा में रंजक के घर की ओर बढ़ा । रंजक के द्वार पर पहुंच कर कल्पाक ने क्रोधावेश भरे स्वर में पुकारा- "प्रो नराधम ! मैं पिछले दो वर्षों से सेवक की तरह तेरे घर पर प्राता रहा हूं। आज तू स्पष्ट उत्तर दे कि मेरे वस्त्र देता है अथवा नहीं ?" क्रुद्ध यमराज की तरह भृकुटी ताने हुए कल्पाक को देख कर रंजक भय से सिहर उठा । उसने हड़बड़ाहट भरे स्वर में अपनी स्त्री से कहा- "प्रो लक्ष्मी ! शीघ्रतापूर्वक आपके वस्त्र ला कर आपको दे दे।" "रजकपत्नी ने तत्काल गह के अभ्यन्तर कक्ष से वस्त्र लाकर कांपते हुए हाथों से कल्पाक के समक्ष रख दिये। अपनी पत्नी के वस्त्रों को देखकर कल्पाक
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