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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वीर कवि और बंदू हंसद्वोपपति विद्याधरराज रत्नचूल को विजित कर तथा केरलपति विताधरेश मृगांक की कन्या विलासवती का महाराज श्रेणिक के साथ पारिणग्रहण कराने के पश्चात् जम्बूकुमार ने राजगृह के बाहर स्थित एक उपवन में गणाधिपति सुधर्मस्वामी से उनके प्रति अपने हृदय में उमड़ते हुए स्नेहसागर का कारण और अपने पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा । उस समय भी प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने एक निश्चित समय का गल्लेख करते हुए जम्बूकुमार से कहा कि आज से दसवें दिन 'तुम्हारा उन चार श्रेष्ठिकन्यानों के साथ पारिणग्रहण होगा, जो कि नएस्वर्ग के देव भव में तुम्हारी चार देवियां थीं।'.
. भगवान् महावीर के पंचम गणधर प्रार्य सुधर्मा स्वामी के निर्वाणकाल के सम्बन्ध में वीर कवि ने लिखा है कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जम्बूस्वामी को बारह प्रकार के महातप करते हए जब १८ वर्ष व्यतीत हो गये, उस समय माघ शुक्ला सप्तमी के दिन प्रातःकाल की वेला में सुधर्मा स्वामी ने विपुलाचल पर निर्वाण प्राप्त किया।२: सुधर्मा स्वामी के निर्वाण पश्चात् अर्द्ध प्रहर दिन व्यतीत होने पर जम्बूस्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
जम्बूस्वामी के निर्वाण के सम्बन्ध में वीर कवि ने लिखा है कि कैवल्यप्राप्ति के पश्चात् जम्बूस्वामी १८ वर्ष तक भव्यजनों का उद्धार करते रहे और अंत में (दीक्षा ग्रहण करने के ३.६ वर्ष पश्चात् ) उन्होंने विपुलाचल के शिखर पर प्रष्टकर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया।
जंबू द्वारा विद्युत् चोर को प्रतिबोध महापुराण (उत्तरपुराण) में दिगम्बर आचार्य गुणभद्र ने विद्युच्चोर का परिचय देते हए श्रेष्ठी अहहास के गृह में चोरी करने की इच्छा से अपने ५०० साथियों के साथ उसके प्रवेश का जो वर्णन किया है वह संक्षेप में इस प्रकार है :१ जंतं तउ चिरु देविचउक्कं, छम्मासावहिं-पिययममुक्कं । चिकभवनेहनिवद प्राय, सायरदत्ताईणं जायं ।। ........................................ दिशं तुज्झ ताएं तं सव्वं, दसमए वासरे परिणेयव्यं ।
[जं० चरिउ, ८-५, पृ० १५१-१५२] २'अट्ठारहवरिसहं कालु गउ माहहो सियसत्तमि पसरे त उ । विउलइरिसिहरे विसुद्धगुरिण निवारणु पत्त सोहम्मु मुरिग ॥२३॥
1 [वही १०-२३, पृ० २१५] 3 तत्लेव दिवसि पहरीमाणि पाउरियजोएं सुक्कझाणि । पलिपंकासीणहो निम्ममासु जंबूकुमार मुरिणपुंगमासु । उप्पण्णउ केवलु पुणु निरंधु अवलोयउ तिहुयणु एक्कखंघु ।
- [वही, १०-२४] ४ भव्वयणचित्तचूरियकुतक्कु, अट्ठारहवरिसहं जाम थक्कु । विउलइरिसिहरि कम्मट्ठचत्तु सिद्धालय सासयसोक्खपत्तु ।
[वही, १०-२४, पृ० २१५]
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