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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाटलीपुत्र का निर्माण देवदत्त अनिका के गुणों और रूपराशि पर इतना विमुग्ध हो गया था कि उसने अपने वृद्ध माता-पिता का विचार किये बिना ही जयसिंह द्वारा रखी गई शर्त को स्वीकार कर लिया। अपनी शर्त के स्वीकृत हो जाने पर जयसिंह ने देवदत्त के साथ अनिका का विवाह कर दिया और नवदम्पती बड़े प्रानन्द के साथ रहने लगे। अनिका के प्रेमपाश में आबद्ध देवदत्त ने अपने वृद्ध माता-पिता की वर्षों तक कोई सुध-बुध नहीं ली। पर्याप्त समय व्यतीत हो जाने पर एक दिन देवदत्त के पास उत्तरमथुरा से उसके माता-पिता का पत्र आया। उस पत्र में लिखा हुआ था- "चिरंजीवीपुत्र ! अब हम दोनों चक्षुविहीन एवं वृद्धावस्था के कारण शिथिलांग हो गये हैं और कराल काल के गाल में जाने ही वाले हैं। हमारी मृत्यु के पहले यदि तुम एक बार पाकर हमसे मिल लो तो हमारे हृदय को शान्ति मिल सकेगी।"
अपने वृद्धमाता-पिता का पत्र पढ़ते ही देवदत्त की प्रांखोंसे अश्रुओं की धाराएं बहने लगीं। वह बार-बार पत्र को पढ़ने लगा और उसका प्रथुप्रवाह बढ़ता ही गया।
अपने पति को दाम्पत्य जीवन में पहली बार इस प्रकार रोते देखकर अनिका ने उससे शोक का कारण पूछा और उससे किसी प्रकार का उत्तर न मिलने पर अनिका ने देवदत्त के हाथ से वह पत्र लेकर एक ही सांस में पढ़ डाला। पत्र को पढ़ते ही वह सारी स्थिति को समझ गई। अनिका तत्काल अपने भाई के पास पहुंची और उसे सब बात समझाकर उसने उत्तर मथुरा जाने की अनुमति प्राप्त करली। - देवदत्त और अनिका जिस समय अपने सेवकों के साथ उत्तर मथुरा की मोर प्रस्थित हुए, उस समय अनिका गर्भवती थी। उत्तर मथुरा की.पोर यात्रा करते हुए मार्ग में अनिका ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । उत्तर मथुरा पहुंचने पर शिम् के पितामह और पितामही ही इसका नाम रखेंगे, यह सोच कर देवदत्त
और अनिका ने उस शिशु का कोई नाम नहीं रखा । साथ के लोग उसे अग्निकापुत्र कह कर सम्बोधित करने लगे। कुछ ही समय पश्चात् देवदत्त ने अपने घर पहेच कर अपने वृद्ध माता-पिता को प्रणाम किया और उस शिशु को उनकी गोद में रखते हुए कहा - "विदेश में रहते हुए मैंने जो कुछ अजित किया है, वह यह लीजिये ।" पौत्र को गले से लगा कर वृद्ध दम्पती अति प्रसन्न हुए और अपना पहले का सब दुःख भूल गये । उन्होंने अपने पौत्र का नाम सन्धीरण (धर्य बंधाने वाला) रखा पर सबको अनिकापुत्र सम्बोधन बड़ा प्रिय लगता था अतः वह बालक अग्निकापुत्र के नाम से ही पहचाना जाने लगा। लालन-पालन के साथ-साथ अध्ययन योग्य वय होने पर अग्निकापुत्र को शिक्षा दिलाने का समुचित प्रबन्ध किया गया। सभी विद्याओं में निष्णातता प्राप्त करने के साथ-साथ अग्निकापुत्र ने युवावस्था में प्रवेश किया।
अग्निकापुत्र ने युवावस्था में ही भोगों का विषवत् परित्याग कर प्राचार्य जयसिंह के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण की । दीक्षित होने के पश्चात् श्रमण
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