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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाटलीपुत्र का निर्माण यह सुन कर अन्त्रिकापुत्र केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रत्यन्त उत्कण्ठित हो गंगा की ओर चल पड़े । गंगातट पर पहुंच कर निकापुत्र भी अन्य लोगों के साथ नाव में बैठे । नाव गंगानदी में प्रवाहित की गई । नाव जब गंगा के मध्यभाग में पहुंची तो अचानक उस ओर से पानी में डूबने लगी जिस मोर कि अनिकापुत्र बैठे हुए थे। यह देख कर अग्निकापुत्र नाव में दूसरी ओर बैठे। उनके बैठते ही नाव उस ओर से पानी में डूबने लगी। जिस-जिस मोर मनिकापुत्र सरकते, नाव उस ही ओर से पानी में डूबने लगतो। अन्त में अग्निकापुत्र नाव के बीच में बैठे तो पूरी नाव ही पानी में डूबने लगी । यह देख कर नाव में बैठे हुए अन्य व्यक्तियों ने अग्निकापुत्र को उठा कर गंगा के प्रवाह में फेंक दिया।' अग्निकापूत्र शान्तभाव से प्राणिमात्र पर दया रखते हुए विचार करने लगे- "मेरे इस शरीर के द्वारा पानी के कितने जीवों का विनाश हो रहा है ?"
इस प्रकार का विचार करते-करते अग्निकापुत्र का चिन्तन अपकश्रेणी पर प्रारूढ़ हुआ और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। केवलज्ञान की प्राप्ति के तत्काल पश्चात् अग्निकापुत्र शुक्लध्यान के तीजे और चौथे चरण में प्रविष्ट हुए और उस ही समय समस्त कर्मों को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त हुए।
__ मत्स्य, मच्छ आदि जलचर प्राणियों ने मुनि के पार्थिव शरीर को खा डाला और उनकी करोटी(ठुड्डी सहित कपाल)धड़ से अलग हो गंगा की धाराओं में इधर-उधर बहती हुई गंगा के किनारे एक स्थान पर प्रा लगी। संयोगवश पाटली वृक्ष का बीज उस करोटी में पा घुसा और कुछ ही समय पश्चात् उस करोटी की दाहिनी हनु (ठुड्डी) को फोड़ कर एक पाटल वृक्ष का छोटा सा पौधा अंकुरित हुआ। वह पौधा समय पाकर विशाल वृक्ष का रूप धारण कर गया। यह वही पाटली का पवित्र वृक्ष है, जिस पर कि यह चाष पक्षी बैठा हुआ है।"
वृद्ध नैमित्तिक से पाटली वृक्ष के सम्बन्ध में सारा विवरण सुन कर अन्य सभी नैमित्तिक पाश्चर्यभरी दृष्टि से उस पाटली वृक्ष को देखने लगे। 'मावश्यक चूणि । मावश्यक हारिभद्रीया, पत्र ६८९ (ख) प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि ज्यों ही मनिकापुत्र को गंगानदी में फेंका गया
त्यों ही पूर्वजन्म में वैर रखने वाली एक व्यन्तरी ने उन्हें धूल पर उठा लिया । शूल से विधे हुए पनिकापुत्र ने उत्कट भावनाओं के माध्यम से केवलज्ञान प्राप्त किया और तत्काल वे मुक्त हुए। यथा : ततो नौस्थितलोकेन, सूरिः विपि वारिणि ।
शूले न्यधात्प्रवचनप्रत्यनीकामरी व तम् ।।१६।। शूलपोतो पि गंगान्तः मूरिश्वमचिन्तयत् । महो वपुर्ममानेकप्राण्युपद्रवकारणम् ॥१६६॥ [परिशिष्टपर्व, सर्ग ६]
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