________________
२५६
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिशु० का सं० परिचय उस ३० वर्ष के शासनकाल को इसमें जोड़ने पर ईसा पूर्व ७६३ में शिशुनागवंश के संस्थापक एवं मूलपुरुष शिशुनाग द्वारा वाराणसी के राज्य सिंहासन पर आसीन होना सिद्ध होता है। भगवान् पार्श्वनाथ का निर्वाण ईसा पूर्व ७७७ में हुआ। इन सब तथ्यों पर विचार करने से तो ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकुवंशी वृहद्रथ राजाओं की परम्परा में हुए वाराणसी के महाराजा अश्वसेन के स्वर्गगमन के पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण हा और भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण के १४ वर्ष पश्चात् शिशुनाग वाराणसी का राजा बना।
वाराणसी के राज्य सिंहासन पर शिशुनाग ने किस समय में अधिकार किया इस समस्या का निर्णायक हल करने में एक और तथ्य सहायक हो सकता है । वह यह है कि भगवान पार्श्वनाथ के पंचम पट्टधर प्रार्य केशी मगध सम्राट बिंबसार (श्रेणिक) के समय में विद्यमान थे। वायुपुराण और भागवतपुराण के उल्लेखों के अनुसार श्रेणिक शिशुनागवंश का छठा राजा और मत्स्यपुराण के उल्लेखानुसार ८वां राजा था। भगवान पार्श्वनाथ के ५वें पट्टधर की विद्यमानता में शिशुनागवंश का छठा अथवा पाठवां वंशज विद्यमान हो इस अनुमान के सहारे यह मानना असंगत नहीं कहा जा सकता कि शिशुनाग ने भगवान् पार्श्वनाथ के पिता वाराणसीपति महाराजा अश्वसेन के देहावसान के कुछ ही समय पश्चात् अथवा तत्काल पश्चात् वाराणसी के सिंहासन पर अधिकार कर लिया हो।
इन सब तथ्यों पर समीचीनतया विचार करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महाराज अश्वसेन के स्वर्गगमन के पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ की विद्यमानता में ही शिशुनाग ने वाराणसी के राज्य पर अधिकार कर लिया था।
मगध पर उदायी का शासनकाल मगध के महान् प्रतापी एवं महत्त्वाकांक्षी महाराजा कूणिक की मृत्यु के पश्चात् वीर निर्वाण सं० १८-१६ में मगध के राज्यसिंहासन पर कूरिणक के पुत्र उदायी का अभिषेक किया गया। उदायी भी अपने पिता और पितामह की ही तरह बड़ा शक्तिशाली और न्यायप्रिय शासक था। जैनधर्म के प्रति उसकी प्रगाढ़ श्रद्धा और भक्ति थी। उसने न केवल प्रजा को सुशासन ही दिया अपितु पैतृक परम्परा से प्राप्त मगध के राज्य की शक्ति, सीमा, यशकीर्ति, श्री और समृद्धि में भी उत्तरोत्तर अभिवृद्धि की।
जिस प्रकार कुणिक ने अपने पिता श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् मगध राज्य की राजधानी राजगृह से हटाकर चम्पा में प्रतिष्ठापित की, उसी प्रकार कूरिणक की मृत्यु के पश्चात् उदायी ने भी मगध की राजधानी को चम्पा से किसी अन्य स्थान पर ले जाने का विचार किया। उस समय के विशाल मगधराज्य के अनुरूप ही राजधानी के लिये उपयुक्त स्थान की खोज हेतु विशेषज्ञों और नैमित्तिकों के दल चारों ओर प्रेषित किये गये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org