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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिशु० का सं० परिचय मत्स्यपुराण, वायुपुराण, श्रीमद्भागवतपुराण और जैन तथा बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में मगध के इस प्रतापी राजवंश के सम्बन्ध में जो सामग्री उपलब्ध है, उसके सम्यक पर्यालोचन से शिशुनाग द्वारा वाराणसी में इस नवीन राजवंश की स्थापना का समय तेवीसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के पिता काशिपति महाराज अश्वसेन के स्वर्गगमन के पश्चात् ईसा पूर्व ८वीं शताब्दी के आसपास का निकलता है। श्रीमद्भागवतपुराण में शिशुनाग से ले कर महामन्दी तक नागदशकों (शिशुनागवंशी दश राजाओं) का शासनकाल समष्टि रूप से ३६० वर्ष बताया गया है।' वायुपुराण में इन नागदशकों का राज्यकाल ३६२ वर्ष और क्रपशः प्रत्येक राजा का राज्यकाल निम्नलिखित रूप से बताया गया है :राजा का नाम
शासनकाल १. शिशुनाक
४० वर्ष २. शकवर्ण (काकवर्ण) ३. क्षेमवर्मा
२०, ४. अजातशत्रु ५. क्षत्रौजा (प्रसेनजित्) ६. बिंबिसार (श्रेरिणक)
२८ ॥ ७. दर्शक (कूणिक-अजातशत्रु) ८. उदायी
३३ । ६. नन्दिवर्धन
४२ ॥ १०. महानन्दी
४३ , इन दश का सब मिला कर शासनकाल : ३३२ वर्ष
इस प्रकार इन. शिशुनागवंशी दस राजाओं का पृथक्-पृथक् राज्यकाल उल्लिखित करने के पश्चात् वायुपुराणकार ने लिखा है :- .
इत्येते भवितारो वै, शैशुनाका नृपा दश । शतानि त्रीणि वर्षाणि, द्विषष्ट्यभ्यधिकानि तु ॥१८०।। अ० ६१ .
अर्थात् ये दश शिशुनागवंशी राजा होंगे जिनका कि ३६२ वर्ष (तीन सौ. बासठ वर्ष) तक शासन रहेगा। किन्तु इन दशों राजाओं का पृथक्-पृथक् जो शासनकाल दिया गया है, उस सबको जोड़ने पर ३६२ वर्ष के स्थान पर ३३२ वर्ष का ही होता है। वायु पुराणकार द्वारा इस प्रकार इन राजाओं का पृथक् २ जो शासनकाल बताया गया है, उसमें निश्चित रूप से किसी शासक का ३० वर्ष का शासनकाल जोड़ना रह गया है। इसी कारण समष्टि रूप से जो ३६२ वर्ष ' शिशुनागा दर्शवते षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ।७
समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं, कुरुश्रेष्ठ कलो नृपाः । [भागवत्, स्कंध १२, प्र० १] २ वायुपुराण, प्र. ६१, श्लोक १७४ से १८० ।
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