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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिशु० का सं० परिचय इस प्रकार इतिहासविद् श्री मजूमदार ने शिशुनागवंशियों को तुर्किस्तान के निवासी और बिज्जी जाति के माना है और पाली ग्रन्थों ने वैशाली निवासी लिच्छवी क्षत्रिय ।
भारतवर्ष के सगरकालीन प्रतिप्राचीन इतिहास का विहंगमावलोकन करने पर यह विदित होता है कि चन्द्रवंशी हैहय जाति के क्षत्रियों ने शक आदि अनेक जातियों की सहायता से अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी राजा बाहुक पर आक्रमण किया और उसे पराजित कर अयोध्या पर अधिकार कर लिया। राज्यच्युत राजा बाहुक अपनी रानियों के साथ वन में चला गया। वनवासकाल में बाहुक की एक रानी ने गर्भ धारण किया किन्तु पुत्र का मुख देखने से पूर्व ही बाहुक का देहावसान हो गया। समय पर बाहक की रानी ने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम सगर रखा गया। सगर शैशवकाल से ही बड़ा प्रोजस्वी था। उसने महर्षि प्रौर्व के पास समस्त विद्याओं का अध्ययन किया। अपने समय के अप्रतिम धनुर्धर सगर ने युवावस्था में पदार्पण करते ही अपने शत्रुओं पर भीषण आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया और अपने वंशपरम्परागत अयोध्या के राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया ! अयोध्या के राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही सगर के अन्तर में प्रतिशोध की अग्नि प्रचण्ड रूप से प्रज्वलित हो उठी। वह अपने पिता पर आक्रमण करने वाले हैहय आदि क्षत्रियों का सर्वनाश करने पर उतारू हो गया। सगर के भय के कारण उसके शत्रु सुदूर देशों की ओर पलायन कर गये। सगर ने वहां पर भी उनका पीछा किया और उन्हें वह चुन-चुनकर मारने लगा। अन्ततोगत्वा प्रौर्वऋषि द्वारा बीच-बचाव करने पर सगर ने उन क्षत्रियों को विरूप और बहिष्कृत कर उन्हें प्राण-दान दिया।' इस घटना के पश्चात् तालजंघों, हैहयों, शकों प्रादि क्षत्रियों को अन्य क्षत्रियों द्वारा कुछ हीन समझा जाने लगा। कालान्तर में समय-समय पर परस्पर बिगड़े हुए ये सम्बन्ध कुछ सुधरे पर यादवों के प्रति रुक्मी और शिशुपाल द्वारा प्रयुक्त किये गये कटु वाकप्रहारों, जातीय हीनतासूचक कटाक्षों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि महाभारत काल तक इक्ष्वाकु आदि जातियों के क्षत्रिय यदुवंशियों, हैहयों आदि को अपने से हीन समझते रहे हैं। ' भएकस्तरसुतस्तस्माद् वृकस्तस्यापि बाहुकः । सोऽरिभितभू राजा सभार्यो वनमाविशत् ।।२।। वृद्ध तं पंचता प्राप्तं महिष्यनु मरिष्यती। मौर्वेण जानतात्मानं प्रजावन्तं निवारिता ॥३॥ प्राज्ञायास्य सपत्नीभिगरी दत्तोऽन्यसा सह । सह तेनैव संजातः सगरास्यो महायशाः ।।४।। सगरश्चक्रवर्त्यासीत सागरो यत्सुतैः कृतः । यस्तालजंघान् यवनानछकान हैहयबर्बरान् ॥५॥ नावधीद् गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः ।
[भागवत्, स्कन्ध ६ म०८]
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