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'केवलिकाल : भ्रायं जम्बू
पाटलीपुत्र का निर्माण
उनमें से विशेषज्ञों का एक दल अनेक स्थानों के गुणदोष देखता हुमा गंगा नदी के तट पर पहुंचा। वहां उन निमित्तशास्त्र के विशेषज्ञों ने सुन्दर पुष्पों से प्राच्छादित एक पाटली (केसूला- रोहीड़ा) वृक्ष देखा जिस पर (चाष) नीलकण्ठ पक्षी अपना मुख खोले बैठा हुआ था और चारों ओर से कोट-पतंगे स्वतः हीं श्रा श्राकर उसके मुख में प्रवेश कर रहे थे । इस प्रकार का अद्भुत दृश्य देखकर नैमित्तिकों को बड़ा प्राश्चर्य हुआ । परस्पर विचार-विनिमय के पश्चात् उन लोगों ने यह मन्तव्य अभिव्यक्त किया कि इस स्थान में कोई अद्भुत विशेषता है । जिस प्रकार इस चाष पक्षी के मुख में कीट-पतंगे स्वयमेव श्रा प्राकर गिर रहे हैं, ठीक उसी प्रकार यदि इस स्थान पर नगर बसा दिया जाय तो उस नगर में रहने वाले पुण्यवान् नृपति के पास दूर-दूर से धन-सम्पत्ति स्वतः ही ग्रा ग्राकर एकत्रित होगी । '
वस्तुस्थिति पर विचार-विमर्श करते समय उनमें से एक प्रतिवृद्ध नैमित्तिक ने कहा - " बन्धुओ ! यह कोई सामान्य पाटलवृक्ष नहीं है । ज्ञानियों द्वारा इसकी . बड़ी महिमा बतायी गई है :
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यह प्रतिकापुत्र केवली के कपाल में पड़े हुए पाटली बीज का ही विशाल रूप है ।
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प्राचीन काल में दक्षिरण मथुरा और उत्तर मथुरा नामक दो नगरियां थीं । उत्तरमथुरा का निवासी देवदत्त नामक एक युवा व्यवसायी देशाटन करता हुआ दक्षिण मथुरा में पहुंचा । दक्षिण मथुरा के निवासी जयसिंह नामक एक वणिक् पुत्र से देवदत्त की मित्रता हो गई। एक दिन जयसिंह द्वारा निमन्त्रण पाकर देवदत्त जयसिंह के घर भोजनार्थं गया । जयसिंह की रूपगुणसंपन्ना बहिन, कुमारी प्रनिका ने अपने सहोदर और उसके सखा को षड्रसयुक्त स्वादिष्ट भोजन कराया । प्रतिका के रूप लावण्य को देखकर देवदत्त उस पर आसक्त हो गया ।
दूसरे दिन देवदत्त ने जयसिंह के पास एक प्रस्ताव भेजा, जिसमें उसने. पत्रिका के साथ अपना विवाह करने की प्रार्थना की। जयसिंह ने इस शर्त के साथ विवाह करने का सन्देश भेजा कि उसकी बहिन अनिका उसे प्रारणों से भी अधिक प्रिय है, वह एक क्षरण के लिए भी उसे दूर नहीं रख सकता । यदि देवदत्त यह प्रतिज्ञा करे कि विवाह होने पर जब तक प्रनिका पुत्रवती न हो तब तक वह प्रनिका सहित उसके घर पर ही रहेगा, तो वह देवदत्त के साथ अपनी बहिन fair का विवाह करने को तैयार है ?
ते चिन्तयत्रिहो शे, पक्षिरणोऽस्य यथा मुखे । कीटिकाः स्वयमागत्य, निपतन्ति निरन्तरम् ||३८|| तथास्मिन्नुत्तमे स्थाने, नगरेऽपि निवेशिते । राश: पुण्यात्मनोऽमुष्य, स्वयमेष्यन्ति सम्पदः || ३६ |
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[ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६ ]
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