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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युच्चोर को प्रतिबोध गृह में विषयासक्त रहने वाला विद्युच्चर चोर स्तब्ध रह गया। वह और सावधान होकर नवविवाहित वर-वधुओं की बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा।
. जम्बूकुमार और उनकी चार नववधुत्रों का परस्पर जो संवाद हो रहा था उसे विद्युच्चर स्पष्टरूप से सुन रहा था। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि यह नव तारुण्य की भोगयोग्य वय, सभी प्रकार की भोग्य सामग्री सहजरूपेण समुपलब्ध, सुरसुन्दरियों के समान अनुपम रूपलावण्यवती चार नवविवाहिता लोकधर्मानुसार न्यायतः प्राप्त पत्नियां, एकान्त स्थान, विषयभोगों के उपभोग की पूर्ण सामर्थ्य, कुबेरोपम वैभव, भोगोपभोगों के लिये अनुरोध और आग्रहभरा आमन्त्रण किन्तु यह तरुण निर्विकार, निर्लिप्त और निश्चल बना हुआ है । ऐसा अभूतपूर्व पाश्चर्य उसके दृष्टिगोचर होना तो दूर उसके कर्णरन्ध्रों में भी कभी नहीं पड़ा है। वह अपने चोर-कार्य को भूल कर नवदम्पति के अद्भुत और अन्तस्तलस्पर्शी संवाद को सुनने में प्रात्मविस्मृत हो तल्लीन हो गया।
___माता जिनमती के लिये यह रात्रि उसके कुटुम्ब एवं वंश-परम्परा के भविष्य के लिये निर्णायक रात्रि थी। उसके हृदय में यह जानने की उत्कण्ठा बार-बार बलवती बनती जा रही थी कि उसकी रूप-यौवन और सर्वगुण सम्पन्ना चार पुत्रवधुएं उसके इकलौते लाडले लाल को भोगमार्ग की ओर आकृष्ट करने में सफल हुई हैं या नहीं। इस उत्कट उत्कण्ठा को अपने अन्तर में लिये वह बार-बार छुपे पावों जम्बूकुमार के शयनकक्ष के द्वारों के पास प्राकर कान लगा कर अपने पुत्र और पुत्रवधुओं के वार्तालाप को सुनती और अपने पुत्र को अपने निश्चय पर अचल समझ कर हताश हो पुनः अपने शयनकक्ष की ओर लौट जाती। धारिणी का यह क्रम बीच-बीच में कुछ क्षणों के व्यवधानों से निरन्तर चल रहा था। इस बार वह दबे पांवों जम्बूकुमार के शयनकक्ष के उस द्वार की पोर आई जहां चोर विद्युच्चर अपनी सुध-बुध भूले नव वर और वधुओं का संलाप सुन रहा था।
. द्वार पर सटे चोर पर दृष्टिपात होते ही जिनमती ने आश्चर्य एवं भय मिश्रित स्वर में पूछा - "अरे ! इस समय यहां तुम कौन हो?" .
विधुच्चर ने मन्द किन्तु निर्भय स्वर में उत्तर दिया - "बहिन ! तुम विह्वल न होना । मैं विद्युच्चर नामक चोर हं जो तुम्हारे इसी राजगह नगर में रहते हुए चोरियां करता रहता हूं। मैंने तुम्हारे इस भवन से भी अनेक बार रत्न-स्वर्ण और विपुल धन चुराया है । उसी चौर्यकार्य के लिये मैं प्राज भी यहां पाया था।"
मां जिनमती ने रनेहसिक्त स्वर में कहा- "वत्स ! मेरे इस घर में से जो कुछ तुम्हें अच्छा लगे वही ले जा सकते हो।""
विद्युच्चर ने कहा- "बहिन ! सच मानो, प्राज चोरी करने की इच्छा ही नहीं हो रही है। भाज मैंने अपने जीवन में पहली बार यह अदृष्टपूर्व-अश्रतपूर्व प्रत्यन्त अद्भुत कुतूहलपूर्ण दृश्य एवं संवाद देखा और सुना है कि दिव्य रूपलावण्यमयी युवतियों के कटाक्षों भोर करुण-कोमल प्रार्थना स्वरों से इस युवक का
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