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विद्युबोर को प्रतिबोध] केवलिकाल : मार्य जम्बू
___ जम्बूकुमार ने सुधर्मा स्वामी के पास पहुंच कर वस्त्राभूषणों का परित्याग किया और पंचमुष्टि लुंचन कर उनसे निर्ग्रन्थ श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। जम्बूकुमार के पश्चात् अनेक राजानों ने दीक्षा ग्रहण की । तदनन्तर विद्युच्चर चोर ने प्रभव आदि ५०० राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण की जो सभी चौर्यकर्म में निरत रहते थे। इनके पश्चात् जिनदास ने भी समस्त ऐहिक सुख-वैभव का परित्याग कर संयम ग्रहण किया। तत्पश्चात् जम्बूकुमार की माता जिनमती ने और जम्बूकुमार की पद्मश्री आदि चारों पत्नियों ने भी सुप्रभा आर्यका के पास श्रमणी-दीक्षा ग्रहण की। __जम्बूस्वामी के निर्वाण गमन के वर्णन के पश्चात् पण्डित राजमल्ल ने जम्बूस्वामिचरित्र में विद्युच्चर मुनि द्वारा अपने प्रभव आदि ५०० साधुपरिवार सहित मथुरा नगरी की ओर विहार करने, मथुरा के महोद्यान में ठहरने, सूर्यास्तवेला में चण्डमारि नाम की वनदेवी द्वारा उन्हें उस महोद्यान में रात्रि के समय भूतप्रेतादि द्वारा घोर उपसर्ग देने की सम्भावना.की पूर्वसूचना दिये जाने के साथसाथ उन्हें वहां से विहार कर अन्यत्र चले जाने का परामर्श दिये जाने का उल्लेख किया है। इसके पश्चात् यह बताया गया है कि उन मुनियों ने सूर्यास्त के पश्चात् विहार करना अनुचित समझ कर वहीं आवश्यक श्रमरणक्रियाएं करना प्रारम्भ कर दिया। रात्रि के समय भूतप्रेतादि द्वारा विद्युच्चर और उनके ५०० साथी साधुओं को ताड़न, तर्जन, मर्दन आदि घोर उपसर्ग दिये गये । पिशाचों द्वारा उन मुनियों को शूलादि तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहारों से क्षत-विक्षत किया गया, बार-बार आकाश में ऊपर उठा कर पृथ्वी पर पटका गया। पर वे सभी मुनि शान्तभाव से उन दुस्सह्य परीषहों को सहते रहे।
महामुनि विद्युच्चर को उन प्रेतादि द्वारा सबसे अधिक कष्ट दिया गया पर उन्होंने अनित्यानुप्रेक्षा आदि १२ प्रकार की अनुप्रेक्षाओं से अपने मन को निश्चल बनाये रखा।
प्रातःकाल होते ही उपसर्ग तो शान्त हुए, किन्तु उन मुनियों के शरीर ताड़न, छेदा, भेदन आदि के कारण इतने जर्जरित हो गये थे कि उन्हें जीने की आशा न रही। उन ५०१ मुनियों ने संलेखनापूर्वक चार प्रकार की आराधना करते हुए देह त्याग किया । उत्कट भावशुद्धि के कारण मुनि विद्युच्चर सर्वार्थसिद्ध ' ततः केचित्तु भूपालाः, शुद्धसम्यक्त वभूषिताः । बभूवुर्मुनयो नूनं, यथाजातस्वरूपकाः ॥६४।। मथ विद्यु च्चरो दस्युविरक्तो भवभोगतः । सर्वसंगपरित्यागलमणं व्रतमग्रहीत् ॥६६॥ साधं पंचशतभूपपुरासीत्स संयमी। दस्युकर्मरतः . सर्वेः, प्रभवादिसुसंशिकः ॥६॥
[जम्बूस्वामिचरितम्, सर्ग १२]
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