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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वियुबोर को प्रतिबोष प्रस्तुत किये गये प्रत्येक दृष्टान्त का उससे भी अधिक युक्तिसंगत एवं प्रभावोत्पादक दृष्टान्त सुना कर सहज शान्त स्वर में उत्तर दिया। पर्याप्त समय तक यह रोचक संवाद चला । अन्ततोगत्वा परिणाम यह हुआ कि जो मामाजी भानजे पर अपना रंग जमाने आये थे वे स्वयं ही भानजे के वैराग्यरंग में पूर्णरूपेण रंग गये।
विद्युच्चर ने जम्बूकुमार के चरणों में अपना सांजलि मस्तक झुकाते हुए अति विनीत स्वर में कहा- “महाप्राज्ञ महात्मन् ! आप धन्य हैं । आपकी जितनी भी प्रशंसा की जाय वह कम है। प्राप निर्विकार और निर्लेप हैं अतः आपके लिये इस भीषण भवोदधि को पार कर लेना कोई कठिन कार्य नहीं।" .
तदनन्तर विद्युच्चर ने जम्बूकुमार को अपना वास्तविक परिचय देते हुए कहा- "कुमार ! मैं हस्तिनापुर के महाप्रतापी राजा संवर और उनकी महारानी श्रीषेणा का विद्युच्चर नामक पुत्र हूं। मैंने वर्द्धमान कुमार से सब प्रकार की विद्यानों में निष्णातता प्राप्त की। उसके पश्चात चौर्य-विद्या में निपुणता प्राप्त करने की मेरे मन में उत्कण्ठा उत्पन्न हुई। सर्वप्रथम मैंने अपने ही राज्यकोष में से बहुमूल्य रत्न चुराये परं चोरी करते हुए मुझे किसी राजपुरुष ने देख लिया था अतः मेरे पिता महाराज संबर मेरे उस वृणित कार्य से अवगत हो गये। उन्होंने मुझे राज्य-संपत्ति का खुले रूप में यथेच्छ उपभोग करने की अनुज्ञा देते हुए सब प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि मैं उभयलोक बिगाड़ने वाले अति गर्हणीय चौर्य कर्म का परित्याग कर दूं पर उस समय मेरे हृदय पर पूर्णरूपेण दुर्बुद्धि का
आधिपत्य था अतः मैंने धृष्ठतापूर्वक उत्तर दिया- महाराज! राज्य की सम्पत्ति चाहे कितनी ही विपुल क्यों न हो, आखिर वह परिमित ही है किन्तु चौर्यकार्य के अन्तर्गत लक्ष्मी का कोई पार नहीं, वह अपरिमित है।
यह कह कर मैं इस राजगृह नगर में चला पाया और कामलता नाम की वेश्या के यहां रात-दिन विषयोपभोगों में निरत रहते हुए चोरियां करने लगा। पर माज आपने मेरी अन्तर की चक्षुषों के निमीलित प्रक्षपटलों को उन्मीलित कर दिया है । अब मैं भी अपना प्रत्मकल्याण करूंगा।"
- इसी समय प्रातःकाल हो गया। महाराज श्रेणिक को जम्बूकुमार के दीक्षित होने का समाचार मिलते ही वे अपने समस्त राजकीय वैभव के साथ अहंद्दास के घर पर आये । जम्बूकुमार ने दीक्षा लेने हेतु वन की ओर प्रयाण किया। राजा श्रेणिक ने उन्हें शिबिका में प्रारूढ़ किया।' जम्बूकुमार को दीक्षार्थ जाते देख राजगृह नगर में चारों ओर शोक का वातावरण फैल गया। ' ऐतिहासिक तथ्यों के विश्लेषण से जम्बूकुमार के समय में पण्डित राजमल्म डारा उल्लि. खित मगधपति महाराज श्रेणिक सम्बन्धी समस्त विवरण निराधार और कवि की कल्पनामात्र सिद्ध होता है क्योंकि जम्बूकुमार जिस समय घुटनों के बल भी नहीं पते होंगे उसमें पहले ही णिक का देहावसान हो चुका था।
-सम्पादक
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