________________
२४८
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युबोर को प्रतिबोध विमान में ३३ सागर की प्रायु वाले देव बने और प्रभव प्रादि ५०० मुनि भी स्वर्ग में महर्दिक देव रूप से उत्पन्न हुए।'
केवलिकाल के राजवंश . ऐतिहासिक घटनाक्रम के पर्यवेक्षण से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन समय में राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध अधिकांशतः बड़ा ही मधुर और प्रगाढ़ रहा । देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रार्थिक एवं धार्मिक अभ्युत्थान में जनसाधारण की तरह राजवंशों ने भी समय-समय पर अपनी प्रोर से उल्लेखनीय योगदान किया, इसकी पुष्टि में बड़ी ही प्रचुर मात्रा में प्रमाण उपलब्ध होते हैं। प्राचीन काल में जैन धर्म के पल्लवन से लेकर प्रचार-प्रसार, अभ्युत्थान प्रादि सभी कार्यों में जब-जब और जो-जो भी लोकजनीन प्रयास किये गये, उनमें राजवंशों ने भी जनसाधारण के साथ कंधे से कंधा मिला कर बड़ा महत्त्वपूर्ण सक्रिय सहयोग दिया है। वस्तुतः प्राचीन काल के राजवंशों का लोकजीवन के साथ ऐसा संपृक्त सम्बन्ध रहा कि भारत का राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक अथवा प्रार्थिक इतिहास लिखते समय यदि तत्कालीन राजवंशों की उपेक्षा कर ले जाय तो कोई भी इतिहास न पूर्ण ही माना जा सकता है और न प्रामाणिक ही।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए केवलिकाल के राजवंशों का यहां संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है। वीर नि० सं० १ से ६४ तक के केबलिकाल में मुख्यतः निम्नलिखित राजवंश भारत के विभिन्न प्रदेशों में सत्तारूढ़ रहे :
१. मगध में शिशुनाग राजवंश २. अवंती में प्रद्योत राजवंश ३. वत्स (कोशाम्बी) में पौरव राजवंश ४. कलिंप में चेदि राजवंश .
मगध का शिशुनाग-राजवंश शिशुनाग राजवंश भारत के प्राचीन राजवंशों में बड़ा प्रतापी मोर प्रसिद्ध राजवंश रहा है । इस वंश में अनेक न्यायप्रिय, प्रजाहितषी और शक्तिशाली राजा .. व्यतीते चोपसर्गेऽथ, मुनिविद्युन्चरो महान् ।
व्यभ्रे व्योम्नि येपादित्यो, तेजपुंज इवा तः ।।१६४।। प्रातःकालेऽथ संजाते, प्रान्त्यसल्लेखनाविधी । चतुर्विधाराधनां कृत्वागमत्सर्वार्थ सिद्धि के ॥१६५।। जतानां पंच संख्याकाः, प्रभवादिमुनीश्वराः । प्रते सल्लेखनां कृत्वा, दिवं जग्मुर्यथायथम् ।।१६६
[जम्बूस्वामिचरित्रं, सर्ग १३] जम्बस्यो चरित्र में पं. गजमल्ल ने दो बार प्रभव का उल्लेख किया है पर कहीं उनका परिचय नहीं दिया है।
-सम्पादक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org