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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युचोर को प्रतिबोष सौधर्मकुमार ने कुछ दिन पश्चात् अपने पिता सुप्रतिष्ठ को भगवान् के गणधर के रूप में देखा तो उसे भी संसार से विरक्ति हो गई और वह भी प्रवजित हो गया। थोड़े समय के पश्चात् वह भी भगवान् का पांचवां गणधर बन गया। सुधर्मा नाम का वह पंचम गणधर मैं ही हं जो कि तुम्हारे भवदेव के भव में तुम्हारा भावदेव नामक बड़ा भाई था।' तुम (छोटे भाई भवदेव का जीव) ब्रह्मोत्तर स्वर्ग से च्युत हो राजगृह नगर के श्रेष्ठी अर्हद्दास की पत्नी जिनमती की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । तुम्हारा नाम जम्बूकुमार रखा गयो ।'
विद्युन्मालि देव के भव में जो तुम्हारी चार देवियां थीं वे भी क्रमशः पंचम स्वर्ग से च्युत हो राजगृह नगर के वाद्धिदत्त आदि श्रेष्ठियों के घर में पुत्रियों के रूप में उत्पन्न हुई हैं। वे भी पूर्वभव के स्नेह के कारण तुम्हें प्राणपण से चाहती हैं और वे तुम्हारी लोकधर्मानुसार विवाहित पत्नियां बनेंगी।"
वर्तमान, भूत और भविष्यत् को प्रत्यक्ष की तरह देखने वाले चारज्ञानधारी सुधर्मा स्वामी के मुख से अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त सुनकर सांसारिक विषय-भोगों के प्रति जम्बूकुमार के हृदय में उत्कट वैराग्य की भावनाएं उद्भूत हुई। उनका अन्तर्मन प्रबुद्ध हो गयां अतः उन्हें भवभ्रमण भयावह प्रतीत होने लगा और उनके मन में अपने शरीर तक के प्रति किसी प्रकार का व्यामोह अवशिष्ट न रहा।
जम्बूकुमार ने विनयपूर्वक सुधर्मा स्वामी को प्रणाम करते हुए प्रार्थना की"दयासिन्धो ! जिस प्रकार आपने पूर्वभव में निश्छल, स्वच्छ और सच्चे बन्धुत्व का निर्वहन करते हुए मेरा उद्धार किया था, उसी प्रकार आप अब भी मुझे निग्रंथ श्रमणधर्म में दीक्षित कर मेरा इस भवसागर से उद्धार कीजिये।"
भोगों के प्रति निस्पृह एवं प्रात्मकल्याण के लिये समुत्सुक जम्बूकुमार को प्रासन्नभव्य (निकट भविष्य में मुक्ति प्राप्त करने वाला) जानते हुए भी आर्य सुधर्मा ने कोमल स्वर में कहा- "जम्बू ! कहां तो तुम्हारी यह सुकुमारावस्था और कहां बड़े-बड़े साधकों के लिये भी कठिनतापूर्वक पाला जाने वाला यह श्रमणाचार ? फिर भी यदि तुम्हारे हृदय में दीक्षित होने की उत्कट अभिलाषा है तो एक बार अपने बन्धुवर्ग को पूछकर, उनका समाधान करके फिर दीक्षा ग्रहण करो।"
यह सुनकर जम्बूकुमार कुछ क्षणों के लिये विचार में पड़ गये। अन्त में उन्होंने गुरु आज्ञा के समक्ष हठ करना उचित न समझ माता-पिता की आज्ञा 'सौधर्मोऽपि तथा पश्चाद् वीक्ष्य तं गगानायकम् । जातसंवेगनिर्वेद: प्रवद्राज महामुनिः ।।२।। क्रमात्सोऽप्यभवत्तस्य पंचमो गणनायकः ।
सोऽहं सुधर्मनामा स्यां भवद्भातृचरोऽधुना ।।३०।। जंबूस्वामिचरितम् (पं० राजमल्ल)] २वं हि ततो दिवश्च्युत्वा विद्युन्मालिंचरोऽमरः ।. .. प्रहंदासगृहे सूनुर्जातः सर्वसुखाकरः ॥३३॥ . वही]
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