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fage को प्रतिबोध ]
केवलिकाल : आर्य जम्बू
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" एक दिन जम्बूकुमार ने अपने मन में विचार किया कि विशाल वैभव श्रौर विपुल यश की जो उन्हें प्राप्ति हुई है वह किस सुकृत के प्रताप से हुई है ? अपनी इस आन्तरिक जिज्ञासा को शान्त करने के लिये जम्बूकुमार एक मुनि के पास गये और उन्होंने मुनि को सविधि वन्दन करने के पश्चात् प्रश्न किया "भगवन् ! मैं यह जानना चाहता हूं कि मैं वास्तव में कौन हूं, कहां से आया हूं और जो कुछ मुझे प्राप्त हुआ है वह किस पुण्य के फल से हुआ है ? आप दया कर मुझे मेरे पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाइये ।”
सौधर्म नामक उन मुनि ने, जो कि धर्मोपदेशक थे, उत्तर दिया - "वत्स ! सुन मैं तुझे पूर्व भवों का वृत्तान्त सुनाता हूं।' इसी मगध देश में वर्द्धमान नामक ग्राम में किसी समय भावदेव और भवदेव नामक दो सहोदर रहते थे । उन दोनों ने क्रमशः जैन श्रमरण दीक्षा ग्रहण की और बहुत वर्षो तक श्रमणाचार का पालन कर मृत्यु कें पश्चात् सनत्कुमार नामक स्वर्ग में दोनों भाई देव रूप में उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् देवायु पूर्ण होने पर बड़े भाई भावदेव का जीव वज्रदन्त नामक राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और उसका नाम सागरचन्द्रमा रखा गया । छोटे भाई भवदेव का जीव देवलोक से च्युत हो महापद्म चक्रवर्ती का शिवकुमार नामक पुत्र हुआ । सागर चन्द्र संयम ग्रहरण कर कठोर तपश्चर्या करने लगा और शिवकुमार माता-पिता के अत्यधिक अनुरोध के कारण घर में रहते हुए भी पूर्णरूपेण श्रमणाचार का पालन करते हुए षष्ठभक्त, प्रष्ठभक्त, अर्द्धमासिक, मासिक आदि घोर तपश्चरण और इन तपस्रात्रों के पारण के दिन प्राचाम्लव्रत करने लगा । इस प्रकार शिवकुमार ने घर में रहते हुए ही ६४,००० वर्ष तक घोर तपश्चररण किया । अन्त में समाधिपूर्वक मरण प्राप्त कर क्रमशः दोनों ब्रह्मोनर स्वर्ग में देव हुए । दश सागर की देवायु पूर्ण होने पर बड़े भाई भावदेव का जीव मगध देश के संवाहनपुर नामक नगर के अधिपति राजा सुप्रतिष्ठ की रानी धर्मवती की कुक्षि से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम सौधर्म रखा गया ।
सौधर्मकुमार क्रमशः सभी विद्यात्रों में निष्णात हुआ। एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ अपने परिवार सहित भगवान् महावीर के दर्शन-वन्दन- नमन एवं उपदेशश्रवण के लिये प्रभु के समवशरण में पहुंचा । भगवान् की भवरोगविनाशिनी देशना सुनकर राजा सुप्रतिष्ठ ने प्रभु के पास निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर ली। थोड़े ही दिनों में वह सुप्रतिष्ठ मुनि समस्त श्रुतशास्त्र के ज्ञाता बन गये और भगवान् ने उन्हें चतुर्थ गणधर के पद पर नियुक्त किया | 3
१ प्रयोवाच मुनिर्नाम्ना सोधर्मो धर्मदेशकः ।
शृणु वत्स वदेतेय, वृत्तान्तं पूर्वजन्मनः ॥८॥
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[जम्बूस्वामिचरितम् ( पं० राजमल्ल - रचित) सर्ग ६ ]
जम्बूस्वामिचरितम् (पं० राजमल्लरचितं ), सर्ग ६, श्लो० १८ - २३
• दिवसैः कतिभिभिक्षुः श्रुतपूर्णोऽभवन्मुनिः । गणधरस्तुर्यो जातो वर्द्धमानजिनेशिनः ||२८||
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[ वही ]
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