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२४.. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [विद्युबोर को प्रतिबोष स्वयं रंग गया एवं दूसरे दिन अपने पांच सौ साथियों सहित जम्बूकुमार के साथ ही दीक्षित हो गया।
वीर कवि रचित अपभ्रन्श भाषा के महाकाव्य 'जम्बूचरिउ' के आधार पर दिगम्बर परम्परा के विद्वान् कवि जमल्ल ने विक्रम संवत् १६३२ में रचित 'जम्बूस्वामिचरितम्' में जम्बूकुमार को संसार से विरक्ति होने के कारण का विवरण देते हुए अनेक नई बातों पर प्रकाश डाला है, जिनका श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं है। ऐतिहासिक शोध को हष्टि से वे बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं अतः उनका यहां साररूप में उल्लेख किया जा रहा है।
कवि राजमल्ल ने अपने उक्त काव्य के छठे सर्ग में जम्बूकुमार द्वारा मदोन्मत्त हाथी को वश में करने, सातवें सर्ग में जम्बूकुमार द्वारा विद्याधर राजा, रलचूल को पराजित कर मृगांक नामक विद्याधरराज की उससे रक्षा करने और पाठवें सर्ग में विद्याधरराज पर विजय का तथा जम्बूकुमार और महाराज श्रेणिक के नगरप्रवेश का वर्णन करने के पश्चात् 'जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम्' नामक नवम सर्ग के प्रारम्भ में उनको विरक्ति होने की घटना का वृत्तान्त दिया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है:
' सुतो ममायं रागेण प्रेरितो विकृति भजन् । स्मितहासकटाक्षेक्षणादिमाकि भवेन्नवा ॥५१॥ इत्यात्मानं तिरोषाय पश्यन्ती स्थास्यति स्निहा । माता तस्य तदवक: पापिष्ठः प्रथमांशकः ॥५२॥ सुरम्यविषये स्यातपोदनास्यपुरेशिनः । विद्रावस्य तुग्विवृत्तभो नाम भटाग्रणी ।।५३।। तीक्ष्णो विमलबत्यश्च कृष्या केनापि हेतुना । निवाग्रजाय निर्गत्य तस्मात्पंचशमिटः ॥५४॥ विचचोराह्वयं कृत्वा स्वस्य प्राप्य पुरीमिमाम् । जानन्नदृश्यदेहत्वकपाटोबाटनादिकम् ।।५।। चोरशास्त्रोपदेशेन तन्त्रमन्त्रविशारदः । महद्दासगृहाभ्यन्तरस्थं चोरयितुं धनम् ।।५६।। प्रविश्य नष्टनिंदान्तां बिनवासी विलोक्य सः । निवेचात्मानमेवं किं, विनिद्रासीति वक्ष्यति ॥५॥ सूनुनमक एवायं प्रातरेव तपोवनम् । अहं गमीति संकल्प स्थितस्तेनास्मिनोफिनी ।।५।। धीमानसि यदीम , बायस्वाहात्ततः । उपावर ते सर्व पदास्थाम्यत्रीप्सितम् IRell इति मात्री भवेत्सापि सोऽपि सम्प्रतिपद तत् । एवं सम्पन्नमोनोऽपि शिव पिरिरंसति ॥६॥
[उत्तरपुराल पर्व
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