________________
२३६
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अन्य मान्यता भेद इसके अतिरिक्त जैसा कि पहले बताया जा चुका है श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में जम्बू स्वामी का वीर नि० सं० ६४ में निर्वाण होना माना गया है और दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रंथ तिलोयपण्णत्ती तथा पट्टावलियों में वीर नि० सं० ६२ में तथा अनेक दिगम्बर ग्रन्थों में वीर नि०सं० ६४ में निर्वाण होना माना गया है।
वीर कवि और जम्बू वीर कवि ने अपने महाकाव्य "जम्बूसामिचरिउ" में जम्बू स्वामी के जीवन की कतिपय घटनामों का विवरण देते हुए तिथियों एवं समय का उल्लेख भी किया है जो विवादास्पद तथ्यों के निर्णय में शोध की दृष्टि से बड़ा सहायक सिद्ध हो सकता है अतः उनका संक्षेप में यहां उल्लेख किया जाना आवश्यक है ।
जम्बू स्वामी के जन्म दिन के सम्बन्ध में वीर कवि ने अपने महाकाव्य "जम्बूसामिचरिउ" में लिखा है कि वसंतमास में शुक्लपक्ष की पंचमी के दिन जिस समय चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में स्थित था उस समय वसंतपंचमी के दिन प्रत्यूषकाल में जिनमती ने जम्बू स्वामी को जन्म दिया।'
सागरदत्त प्रादि चारों श्रेष्ठियों ने अपने बालसखा अहंद्दास को परस्पर की गई पूर्वप्रतिज्ञा की याद दिलाते हुए कहा- "मित्र ! तुम्हें भलीभांति स्मरण होगा कि कुमारावस्था में क्रीड़ा करते समय हम लोगों ने एक दिन यह प्रतिज्ञा की थी कि हम पांचों मित्रों में से किसी एक भाग्यवान् मित्र के यदि पुत्र उत्पन्न हो जाय और शेष चारों के कन्याएं हो जायं तो हम लोग अपनी कन्याओं का पाणिग्रहण अपने मित्र के पुत्र के साथ ही करेंगे। पुण्य के प्रताप से तुम्हारे घर पुत्र का जन्म हुमा और हम चारों मित्र पुत्रियों के पिता बने हैं। अतः हमें अपनी प्रतिज्ञानुसार चारों कन्यामों का जम्बूकुमार के साथ पारिणग्रहण करा देना चाहिये । प्रहदास ने अपने चारों मित्रों का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और ज्योतिषी से परामर्श कर उन पांचों मित्रों द्वारा अक्षय तृतीया का दिन विवाह के लिये निश्चित किया गया ।' 'पंचमिहे वसंते पक्ने षवले, रोहिरिगठिए मयलंधणे विमले । पन्नसे पसूय समक्सणउ, कुलमंगलु जयवल्सह तणउ ।।
[जम्बूसामिपरिउ, ४.७, १०६८] ' सायरदत्तपमुहणिउत्तहि, पुन्बई परहयासु नयनुत्तहि । मित कुमारभावे रइवंतहि, किय पइज्ज पंचाहि मि रमंतहि । एक्हो पुत्तु होइ जइ पल्पर, इसरहं पर मि जहि कमाउ । तो तहो पियरहिं दुहियउ देवउ, तेण विवरेण तार परिणेक्ट ।
[बम्सामिपरिट (वीरकविरचित, विमलप्रसाद जैन द्वारा
सम्पादित, १४-४-७, पृ.७१)] 'बिउ विवाहलग्गु घणरासिए. भालय तन दिपसे जोहसए । [बही]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org