________________
११. विवागसुयं] कलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
तीसरे अध्ययन में प्रभंगसेन चोर के माध्यम से बताया गया है किमद्यपान एवं अण्डों का विक्रय करने वाला किस प्रकार वध-बन्ध के दुःखों का भागी होता है।
चौथे शकट अध्ययन में मांस विक्रय और व्यभिचार के फल बतलाते हुए 'छागलिक' कसाई के जन्म-जन्मान्तरं के दुःख और राजपुरुषों द्वारा निर्दयतापूर्वक उसे वध हेतु ले जाये जाने का उल्लेख है। . . ___पांचवें अध्ययन में यज्ञ की हिंसा और परस्त्रीगमन के कटु फलों का वर्णन करते हुए 'महेश्वरदत्त' पुरोहित के माध्यम से नरकादि दुर्गतिरूप हिंसा व व्यभिचार का फल बताया गया है।
छठे अध्ययन में तत्कालीन विविध प्रकार के दण्डविधान का परिचय दिया गया है, और कठोर दण्ड देने वाले को नन्दीषेण की तरह वध, बन्ध और नरकगमन के कैसे कटु फल भोगने पड़ते हैं, यह बताया गया है ।
सातवें अध्ययन में मांस और प्राणी-अंगों से चिकित्सा करने का फल बताते हुए 'उमरदत्त' के १६ रोग एक साथ उत्पन्न होने और दीर्घकाल तक उसके भवभ्रमण का परिचय दिया गया है।
___ आठवें अध्ययन में मच्छीमार के व्यवसाय का दुःखद फल बताते हुए एक मच्छीमार के विविध कष्टपूर्ण नरकादि दुर्गतियों में भ्रमण करने और भयंकर कष्ट पाने का उल्लेख किया गया है।
नौवें अध्ययन में ईर्ष्या का फल बताते हुए राजकुमार सिंहसेन' का उल्लेख किया गया है । 'सिंहसेन' ने 'श्यामा' रानी में प्रासक्त होकर ४६६ रानियों को द्वेषवश महल में बन्द कर जला दिया। इसके परिणामस्वरूप उसको अनेक जन्मों तक नरकादि दुर्गतियों में वध-बन्ध के कष्ट भोगने पड़े, यह बताया गया है।
दशवें अध्ययन में वेश्यावत्ति के फलस्वरूप होने वाले दारुण दुःखों का चित्रण करते हुए बताया गया है कि अंजुश्री को व्यभिचार के कारण किस प्रकार असह्य एवं असाध्य योनिशूल की वेदना भोगनी पड़ी और अनेक जन्मों तक कष्ट भोगने के पश्चात् अन्ततोगत्वा अत्यन्त कठिनाई से उसे बोधि प्राप्त हुई।
- दूसरे श्रुतस्कन्ध में सुबाहु, भद्रनन्दि आदि १० राजकुमारों के सुखमय जीवन का वर्णन है। इन सबने पूर्वभव में तपस्वी मुनि को पवित्र भाव से निर्दोष आहार का प्रतिलाभ देकर संसार का अन्त किया और उत्तम कुल में जन्म लेकर सुखपूर्वक साधना से मुक्ति प्राप्त की। इन १० अध्ययनों में कुछ सुबाहु की तरह १५ भव कर मोक्ष जाने वाले और कुछ तद्भव-मोक्षगामी बताये गये हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org