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द्वा. वि. दिग. मान्यता ]
३.
केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा
१८५
वी० नि० सं० १६२ से ३४५ पर्यन्त अर्थात् १८५३ वर्ष तक १० पूर्वधरों का काल रहा । इस अवधि में विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, घृतिसेन, विजय, बुद्धिल, देव और धर्मसेन ये ११ दश पूर्वधर हुए ।
४.
वी० नि० सं० ३४५ से ५६५ पर्यन्त २२० वर्षों का काल एकादशांगधरों का काल रहा । इस २२० वर्ष की अवधि में नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंसार्य ये ५ एकादशांगधर हुए ।
५. तत्पश्चात् वी० नि० सं० ५६५ से ६८३ तक ११८ वर्ष का आचारांगधर काल रहा । इस अवधि में समुद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु (द्वितीय) और लोहार्य ये ४ आचारांगधर हुए ।
इसके पश्चात् कोई अंगधर नहीं रहा और इस प्रकार वी० नि० सं० ६८३ में द्वादशांगी विलुप्त हो गई ।
यद्यपि तिलोयपत्ति, आदिपुराण आदि दिगम्बर परम्परा के प्राचीन श्रौर मान्य ग्रंथों में स्पष्ट रूप से इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि द्वादशांगी का वी० नि० सं० ६८३ में विच्छेद हो जाने के उपरान्त भी वी० नि० सं० २०३१७ तक अर्थात् दुःषमा काल की समाप्ति के कतिपय वर्ष पूर्व तक द्वादशांगी अंशतः विद्यमान रहेगी, ' तथापि - दिगम्बर परम्परा में आज यह मान्यता ग्रामतौर से प्रचलित है - "वीर नि० सं० ६८३ में ११ अंगों का, १४ पूर्वी का, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र का और समस्त मूल जिनागम साहित्य का सम्पूर्ण रूप से विनाश हो गया । प्रभु महावीर की दिव्य ध्वनि से प्रकट हुआ एक भी शब्द श्राज विद्यमान नहीं रहा है ।"
इस प्रकार की प्रचलित मान्यता का कोई ठोस आधार दिगम्बर परम्पर. के किसी मान्य प्राचीन ग्रंथ में खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होता ।
भगवान् महावीर के अनुयायी सभी विद्वानों, विचारकों और प्रत्येक जैन के लिए यह निष्पक्ष रूप से चिन्तन का विषय है कि क्या भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित शाश्वत सत्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और भावनाओं आदि के अमर सिद्धान्त आर्यधरा से विलुप्त हो चुके हैं ? क्या अमरता की ओर
, (क) वीससहस्सं तिसदा, सत्तारस वच्छराणि सुदतित्थं । धम्मपयट्टरण हेदू.. वोच्छिसदि काल दोसेरणं ।। १४९३ ||
(ख) श्रुतं तपोभृतामेषां प्रणेश्यति परम्परा ।
शेषरपि श्रुतज्ञानस्यैको देशस्तपोधनः ।। ५२७।। जिन सेनानुगैर्वीरसेनं प्राप्तमहद्धिभिः । समाप्ते दुष्पमायाः प्राक्प्रायशो वर्तयिष्यते ।। ५२८ ।।
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[तिलोय पण्णत्त, म. ४]
[ महापुराण ( उत्तरपुर |रण, पर्व ७६ ) ]
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