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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रव्रजित होने का प्रस्ताव दार्टान्तिक रूप में घटित करते हए कुमार ने कहा - "अम्बतात ! अभी तो मुझे बाले भाव के कारण केवल भोज्य पदार्थों की ही अभिलाषा रहती है। अभी रसनेन्द्रिय के आस्वाद-सुख से ही प्रतिबद्ध है जिससे कि मैं अभी अपने आपको बड़ी आसानी में उन्मुक्त कर सकता है। किन्तु यदि मैं पांचों ही इन्द्रियों के विषय सुखों में आसक्त हो गया तो मैं भी उस विषयलोलुप बन्दर की तरह दयनीय एवं दुःखपूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो अन्ततोगत्वा अनन्त भव भ्रमण के भंवर में फंस कर अनन्त दुःखों का भागी बन जाऊंगा। अम्ब-तात ! मैं भवंभ्रमण की विभीषिका से भयभ्रान्त हूँ। कृपा कर मुझे प्रवजित होने की आज्ञा प्रदान कीजिए। जिस प्रकार मकड़ी के जाल के तन्तु मच्छर आदि क्षद्र कीटों को तो अपने पाश में प्राबद्ध कर लेते हैं किन्तु मत्त गजेन्द्र को नहीं बाँध सकते, ठीक उसी प्रकार ऐहिक तुच्छ विषय सुख केवल कापुरुषों को ही अपने वशवर्ती बना सकते हैं, प्रबुद्ध चेतस को नहीं।"
जम्बू द्वारा कही गई उपरोक्त बातें सुन कर मां धारिणी इस भय से अधीर हो उठी कि अब तो उसका पुत्र निश्चित रूप से प्रवजित हो जायगा । उसने करुण रुदन करते हुए कहा- "पुत्र मैं चिरकाल से अपने हृदय में इस प्राशा को संजोये बैठी हूं कि एक बार बरवेश में तुम्हारा मुख-कमल देखू । यदि तुम मेरे चिराभिलषित इस मनोरथ को पूर्ण कर दो तो मैं भी तुम्हारे ही साथ दीक्षा ग्रहण कर लूंगी।"
उत्तर में जम्बुकुमार ने कहा- "अम्ब ! यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो मैं उसकी पूर्ति करने को तैयार है । परन्तु इसके साथ एक शर्त है कि आपकी मनोरथपूर्ति के उस शुभदिन के पश्चात् फिर आप मुझे प्रवजित होने से नहीं रोकेंगी।"
धारिणी ने संतोष की सांस ली, मानो डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया हो। मां के ममता भरे मन में इस विचार से पाशा की किरण प्रकट हुई कि बड़े से बड़े योगियों को विचलित कर देने के लिए एक ही रमणी पर्याप्त होती है। परम रूप-लावण्य एवं सर्व गुरगसम्पन्न उसकी आठ बधुएं अपने सम्मोहक हाव-भावों एवं नेत्र-वारणों से उसके पुत्र को भोगमार्ग की ओर आकृष्ट करने में अवश्य ही सफल हो जायेंगी। ____ उसने हर्षमिश्रित स्वर में कहा - "वत्स! जो तुम कह रहे हो वही होगा। हम लोगों ने पहले से ही तुम्हारे अनुरूप सर्व गुणसम्पन्न अतिशय रूपवती पाठ श्रेष्ठि कन्याओं का तुम्हारे साथ विवाह करने हेतु वाग्दान स्वीकार कर रखा है। वे पाठों ही श्रेष्ठी-परिवार जिन शासन में श्रद्धा-अनुराग रखने वाले एवं सम्पन्न हैं । मैं अभी उन आठों सार्थवाहों को सूचना भिजवाती हूँ।"
' विषयगणः कापुरुषं करोति वशवतिनं न सत्पुरुषम् ।
बघ्नाति मशकमेव हि लतातन्तुर्न मातङ्गम् ॥
[नीति शास्त्र]
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