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जम्बू को प्रश्नपरंपरा केवलिकाल : प्राय जम्बू
२२६ गणधरों द्वारा प्राकलित, और भगवान के प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मा द्वारा अपने सुयोग्य शिष्य आर्य जम्बू के मानस में प्रवाहित पुनीत श्रुतसरिता आज भी अपने मूल स्वरूप को बिना छोड़े मुमुक्षुत्रों के अन्तस्तल में प्रवाहित हो रही है ।
उपलब्ध आगमों का जो स्वरूप प्राज विद्यमान है, यह उस समय की मूल परम्परा को सही रूप में समझने का एक आधार है । आगमों के प्रारम्भिक स्थलों को ध्यानपूर्वक देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर की वाणी को अर्थरूप से सुनकर आर्य सुधर्मा ने जिस प्रकार शब्द रूप से ग्रथित किया, और जिस रूप में जम्बू स्वामी ने पृच्छा कर आगमज्ञान को प्राप्त किया, उसी अपरिवर्तित स्वरूप में आज विद्यमान है। इसकी पुष्टि में "ज्ञाता-धर्मकथा' का निम्नलिखित उपोद्धात सूत्र दृष्टव्य है :
- "उस काल उस समय में प्रार्य सुधर्मा अणगार के ज्येष्ठ (प्रमुख) शिष्य सात हाथ की ऊँचाई वाले कश्यपगोत्रीय जम्बू नामक अरणगार प्रार्य सुधर्मा से न बहुत दूर और न बहुत समीप घुटने ऊँचे तथा सिर नीचा किये, धर्मध्यान एवं शुक्ल ध्यान रूपी कोष्ठ (प्राकर अथवा प्रकोष्ठ) में स्थित, संयम एवं तप से अपनी प्रात्मा को भावित करते हुए विचर रहे थे। संयोगवश आर्य जम्बू के मानस में श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। श्रद्धा, संशय और कुतूहल उत्पन्न होने पर वे उठे और जहां प्रार्य सुधर्मा थे वहां आये। आर्य सुधर्मा को वन्दन नमस्कार किया और उनके न अधिक समीप न अधिक दूर, सुनने की इच्छा से उनकी प्रोर अभिमुख हो, उनको सुश्रूषा करते हुए, नमन करते हुए, सांजलि शीश झुकाते हुए विनयपूर्वक बोले- "भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने पांचवें व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग का यह अर्थ बताया। प्रभु ने छठे अंग-ज्ञाता धर्मकथा का क्या अर्थ बताया था?"
प्रार्य सुधर्मा ने जम्बू मणगार को संबोधित करते हुए इस प्रकार कहा :"हे जम्बू ! श्रमरण भगवान् महावीर ने छठे अंग ज्ञाताधर्मकथांग के दो श्रुतस्कन्ध प्ररुपित किये हैं। वे यह हैं, पहला ज्ञाता और दूसरा धर्म कथा।"'
__छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा के इस उपरिलिखित उद्धरण के एक-एक शब्द से यह स्पष्टतः प्रतिध्वनित होता है कि भगवान महावीर ने विश्व के प्राणियों का कल्याण करने के लिये जो श्रुत-सरिता प्रवाहित की थी उसका समग्ररूपेण पान करने की उत्कण्ठा लिये मार्य जम्बू अपने श्रद्धय गुरु सुधर्मा स्वामी के पास जाते हैं और उनसे जिस रूप में उन्होंने भगवान महावीर से श्रुतसरितावतरण प्राप्त किया, उसी रूप में श्रुतसरित को प्रवाहित करने की प्रार्थना करते हैं। अपने ज्ञानपिपासु, और उत्कट जिज्ञासु सुयोग्य शिष्य जम्बू की प्रार्थना स्वीकार कर प्रार्य सुधर्मा भी उसी रूप में, प्रबल देग के साप श्रुतसरिता को प्रवाहित करते हैं। प्रार्य जम्बू ने महान् उल्लास के साथ अपने निर्मल मानस में प्रार्य सुधर्मा के ' नामाधम्मकहामो, १.५
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