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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दश बोलों का विच्छेद इन १० विशिष्ट प्राध्यात्मिक शक्तियों का जम्बू स्वामी के निर्वाण के पश्चात् विच्छेद हो गया।
आर्य जम्बू स्वामी को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परामों में मन्तिग केवली माना गया है ।
इस प्रकार जम्बू स्वामी के निर्माण के साथ ही वीर निर्वाण सं० ६४ में केवलिकाल समाप्त हो गया।
केबलिकाल के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही शाखामों की यह परम्परागत एवं सर्वसम्मत मान्यता रही है कि २४ वें तीर्थकर भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति गौतम, प्रार्य सुधर्मा स्वामी और पार्य जम्बू स्वामी-ये तीन केवली हुए और जम्बू स्वामी के निर्वाण के साथ ही केवली काल की परिसमाप्ति हो गई।
ये तीनों महापुरुष कितने-कितने समय तक केवली रहे, इस सम्बन्ध में इन दोनों परम्परामों में मान्यताभेद हैं। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों एवं पट्टावलियों में इन्द्रभूति गौतम का केवली काल १२ वर्ष, सुधर्मा स्वामी का ८ वर्ष और पार्य जम्बू स्वामी का ४४ वर्ष, इस प्रकार सब मिलाकर ६४ वर्ष का केवली काल माना गया है। किन्तु इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में मतैक्य नहीं पाया जाता।
दिगम्बर परम्परा के प्राचीन तथा परममान्य ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति (डा० ए० एन० उपाध्ये के मतानुसार ई. ५७३ से ६०६ के बीच की कृति) में इन तीनों केवलियों का अलग-अलग केवली काल न देकर पिण्डरूप से ६२ वर्ष दिया है।' दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में गौतम स्वामी का कैवल्यकाल १२ वर्ष, आर्य सुषर्मा स्वामी का १२ वर्ष और जम्बूस्वामी का ३८ वर्ष इस प्रकार कुल मिला कर ६२ वर्ष का केवली काल माना गया है। इसी प्रकार षट्खण्डागम के धवला 'मनः परापपीत्रेयो, पुलाकाहारको शिवम् । कल्पत्रिसंपमा भान, नासन् जम्मूमुनेरनु ।
[परिशिष्ट पर्व] तिलोयपत्ति में गौतम, सुधर्मा स्वामी और जम्मु स्वामी के ६२ वर्ष के केवली काल का उल्लेख करने के पश्चात् यह स्वीकार करते हुए कि जम्बू स्वामी के पश्चात् कोई अनुबड केवली नहीं हुमा, यह भी उल्लेख किया गया है कि केवलज्ञानियों में अन्तिम केवली श्रीधर कुंडलगिरी से सिट हुए । यथा :
कुंडलगिरिम्मि परिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिदो। पारगरिसीसु परिमो सुपासचंदाभिषाणो य ॥४॥ १४७६।। इस प्रकार का उल्लेख (समस्त प्राचीन जैन बाङ्गमय में) अन्यत्र देखने में नहीं पाता।
[सम्पादक] वासही वासारिण गोदमपहुदोणं जाणवंताएं । पापपट्टणकाले परिमाणं पिंडस्वेणं ॥४॥१३७८।।
[तिलोयपण्णत्ति]
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