________________
२३०
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ जम्बू की प्रश्नपरंपरा मुखारविन्द से निकलती हुई श्रुत धारा को ग्रहण किया । वही आज श्रार्यधरा के मुमुक्षुत्रों के मानस में प्रवाहित हो रही है । यह प्रवाह चलता रहेगा पंचम आारक के अन्त तक ।
प्रार्थ जम्बूस्वामी की विशेषता
जम्बूस्वामी के अनुपम गुणों के सम्बन्ध में विशेष वर्णन की आवश्यकता नहीं क्योंकि ऊपर दिये हुए नायाधम्मक हाम्रो सूत्र के मूल पाठ से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे परम श्रद्धालु, परम विनीत, उत्कट जिज्ञासु और आर्य सुधर्मा के सुयोग्य ज्येष्ठ शिष्य थे। उनके महान् प्रतिभाशाली विराट व्यक्तित्व का, शारीरिक प्रोज, तेज़ और कान्ति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मगधपति कूरिणक ने जब जम्बू अरणगार को आर्य सुधर्मा के शिष्य समूह में देखा तो वे आश्चर्य से हठात् स्तब्ध हो गये ।
श्रार्य जम्बूस्वामी के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उनके जीवनकाल में प्रार्य वसुन्धरा कोटि-कोटि सूर्यों से भी अनन्तगुनित कान्तिमान केवलालोक से निरन्तर प्रकाशमान रही और उनके शुद्ध सच्चिदानन्दधन स्वरूप में लीन होते ही प्रागामी उत्सर्पिणी काल की चौवीसी के प्रथम जिन को harोपलब्धि होने तक के लिये केवलालोक से वंचित बन गई ।
जब जम्बू स्वामी का जन्म हुआ उस समय सर्वज्ञ - सर्वदर्शी २४वें तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे । जम्बू स्वामी की दीक्षा के समय इन्द्रभूति गौतम, उनकी दीक्षा के १२ वर्ष पश्चात् श्रार्य सुवर्मा स्वामी और दीक्षा के २० वर्ष पश्चात् स्वयं जम्बू स्वामी प्रपने केवलालोक से समस्त लोकालोक को प्रलोकित करते रहे । पर जम्बू स्वामी के निर्वारण के साथ ही प्रार्यावर्त से केवलज्ञान का सूर्य इस अवसर्पिणी काल में सदा के लिये अस्त हो गया ।
प्रायं जम्मू स्वामी का निर्वाण
भार्य जम्बू स्वामी सोलह वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में रहे। फिर दीक्षा ग्रहण कर बीस वर्ष तक गुरु सेवा के साथ-साथ ज्ञानोपार्जन, तपश्चररण और संयम साधना में निरत रहे । वीर निर्वारण संवत् २० की समाप्ति पर भगवान् . महावीर के प्रथम पट्टधर श्रार्य सुधर्मा स्वामी ने अपने निर्वारण -गमन के समय शायं जम्बू को अपने उत्तराधिकारी के रूप में भगवान् महावीर का द्वितीय पट्टधर नियुक्त किया । श्रयं जम्बू स्वामी ने प्राचार्यपद पर प्रासीन होने के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त किया। अपने अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र से भव्यजीवों का कल्याण करते हुए आप ४४ वर्ष तक भगवान् महावीर के द्वितीय पट्टधर के रूप में प्राचार्य पद पर रहे । अन्त में श्रार्य प्रभव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर, वीर नि० सं० ६४, तद्नुसार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org