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पत्नियों को प्रतिबोध ]
केवलिकाल : आर्य जम्बू
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जाने के पश्चात् उस व्यक्ति के मन में विषय, सुख एवं मूढ़ता के लिए कोई स्थान अवशिष्ट नहीं रह जाता । "
मैंने सुधर्मा स्वामी की कृपा से तत्वबोध प्राप्त कर लिया है अतः अब मैं विषय भोग के सुख को और समस्त सांसारिक वैभव को विषवत् हानिप्रद और हेय समझता हूं । वस्तुतः ये सब विषय भोग क्षणभंगुर हैं । इन विषय भोगों से प्राप्त होने वाले सुख भी क्षणिक होने के साथ-साथ अनन्त दुखानुबन्धी होने के कारण अनन्त काल तक भवभ्रमरण कराने वाले और भीषरण दुखदायी हैं । इस संसार रूपी विषवृक्ष के जन्म, जरा, रोग, शोक, भीषरण यातनाएं और मृत्यु ये दुःखप्रद फल हैं । विषय भोगों में फंसे रहने के कारण हम लोग अनन्तकाल से भवभ्रमरण करते हुए दुस्सह दारुण दुःख उठाते प्रा रहे हैं।"
प्रभव का ५०० चोरों के साथ गृह प्रवेश
जिस समय जम्बूकुमार अपनी आठों पत्नियों को इस प्रकार शिक्षा दे रहे थे, उसी समय प्रभव नामक एक कुख्यात चोर अपने ५०० साथी चोरों के साथ ऋषभदत्त के घर में चोरी करने के लिये श्रा पहुंचा । प्रभव ने अवस्वापिनी विद्या के प्रयोग से घर के सभी लोगों को प्रगाढ़ निद्रा में सुला दिया और तालोद्घाटिनी विद्या के प्रयोग से सभी कक्षों के ताले खोल डाले । प्रभव के साथ प्राये हुए चोरों ने जब सेठ ऋषभदत्त और उनके यहां श्राये हुए श्रीमन्त अतिथियों के बहुमूल्य रत्न एवं आभूषण आदि उतार कर ले जाने की तैयारी की तो शांत गम्भीर स्वर में चोरों को सम्बोधित करते हुए जम्बूकुमार बोले - "प्रय तस्करो ! तुम लोग हमारे यहां अतिथि के रूप में प्राये हुए इन लोगों की सम्पत्ति को कैसे चुरा कर ले जा रहे हो ?"
जम्बूकुमार के इतना कहते ही ५०० चोर जहां, जिस रूप में थे, उसी रूप में चित्रलिखित से स्तंभित हो गये । यह देख कर प्रभव को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसकी अमोघ अवस्वापिनी विद्या का जम्बूकुमार पर किस कारण से प्रभाव नहीं हुआ । उसने जम्बूकुमार के पास जा कर कहा - "श्रेष्ठिपुत्र ! मैं जयपुर नरेश विन्ध्यराज का ज्येष्ठ पुत्र प्रभव प्रापके साथ मित्रता करना चाहता हूं । श्राप मुझे स्तंभिनी और मोचिनी विद्याएं सिखा कर उनके बदले में मुझ से श्रवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी विद्याएं प्राप्त कर लीजिये ।”
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प्रभव को प्रतिबोध
जम्बूकुमार ने कहा - " प्रभव ! में तो प्रातःकाल होते ही सब सम्पत्ति और परिवार का परित्याग कर प्रव्रजित होने वाला हूं। मुझे इन पापकरी
' ददति तावदिमे विषयाः सुखं, स्फुरति यावदियं हृदि मूढ़ता | मनसि तत्वविदां तु विचारके, क्व विषयाः क्व सुखं क्व च मूढ़ता ॥ २ 'देसु मम' एयाओ विज्जाश्रो थंभ - मोक्खणीयाम्रो | ||३७||
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[ जंबुचरियं ( गुणपाल), पृ० ८२]
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