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५२७ के साथ दीक्षा] केवलिकाल : मार्य जम्बू
२२३ को विधिवत् भागवती दीक्षा प्रदान की।' इस प्रकार ६९ करोड़ स्वर्ण मुद्रामों एवं ८ रमणी-रत्नों को त्याग कर जम्बूकुमार ५२७ मुमुक्षों के साथ सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षित हए। दीक्षा देने के पश्चात् सुधर्मास्वामी ने जम्बूकूमार की माता, उनकी पाठ पत्नियों और पाठों पत्नियों की माताओं को सुव्रता नामक प्रार्या की आज्ञानुवत्तिनी बना दिया। अपने साथियों सहित प्रभवमुनि सुधर्मा द्वारा जम्बू मुनि को शिष्य रूप से सौंपे गये।
___अपार धन-सम्पदा, सुरम्य विशाल भवन, कोटि-कोटि कांचनमुद्राओं और सुररमरिणयों के समान अतीव सुन्दर आठ रमणी-रत्नों का परित्याग कर जम्बू कुमार अति कठोर त्यागपथ के पथिक बने, इस प्रकार के घटनाचक्र में सहज ही पाठक को एक चमत्कार सा प्रतीत हो सकता है, कौतुहल भी हो सकता है। पर जिस प्रकार जीवन और जीवन के मूल्य कालक्रम से बदलते रहते हैं, उसी प्रकार हमें भी प्रत्येक युग की, प्रत्येक काल की परिस्थितियों एवं तज्जनित जीवन के मूल्यों के प्रकाश में ही उस समय के जनजीवन का मूल्यांकन करना चाहिए। सर्वज्ञ प्रभु महावीर के अन्तस्तलस्पर्शी उपदेशों से जनमानस में एक नवीन चेतना जाग्रत हुई। इस चेतना के जागृत होने पर जनमानस जिज्ञासु भोर चिन्तनशील बना। भगवान् महावीर के दिव्य सन्देश से जीवन की वास्तविकता.और सार्थकता का बोध होते ही जन-जीवन में सच्ची संस्कृति साकार हो उठी और जीवन के उच्चतम मादों, उच्चतम संस्कारों को प्रात्मसात् करने की प्रवृत्ति प्रबल वेग से प्रबुद्ध व्यक्तियों के मानस में घर करने लगी। ऐसी स्थिति में वास्तविक सत्य का बोध हो जाने के पश्चात् उसको प्रात्मसात् कर लेना और उसे अपने जीवन में मूर्त स्वरूप देना असम्भव अथवा आश्चर्यजनक नहीं। प्राज के अर्थमूलक युग में प्राज के भौतिक मापदण्ड.से तत्कालीन माध्यात्मिक प्रवृत्तियों एवं सांस्कृतिक मूल्यों पर प्राधारित परिस्थितियों का मूल्यांकन करना वस्तुतः उचित नहीं होगा।
दीक्षानन्तर नवदीक्षित श्रमण श्रमणियों को सम्बोधित करते हुए प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने फरमाया- 'मायुष्मन् श्रमण-श्रमणियो! पाप सबने विषय, कषायादि के बन्धनों को काटकर श्रमणधर्म में दीक्षित हो जो वीरता का परिचय 'प्राचार्य हेमचन्द्र ने जम्बूकुमार की दीक्षा के पश्चात दूसरे दिन अथवा कुछ दिनों पश्चात
प्रभव द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख किया है । यथा :पितृनापृच्छ्य चान्येप : प्रभवोऽपि समागतः । जम्बूकुमारमनुयान्परिव्रज्यामुपारदे । २६.
[परिशिष्ट प० ३] २ नवाणुई कंचणकोरिमाउ, जेणुज्मिमा भट्ट य गलिमानो। सो जंडू सामी पढमो मुणीणं, अपच्छिमो नंदर केवळीणं ॥
[कल्पान्तर्वाच्यानि, पत्र ४१-४८ (हस्तलिखित - संवत् १५६६) अलवर भण्डार] ३ सम्भव है कि श्रमणी संघ की मुस्था चंदनवाला की भाशानुवर्तिनी स्थविरा साध्वी का नाम सुव्रता हो। प्रायः साध्वी का नाक स्मरण न होने की दशा में अपनी रचनामों में विभिन्न रचनाकारों द्वारा सुव्रता नाम लिख दिया गया है।
[सम्पादक
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