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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [५२७ के साथ दीक्षा मगधेश्वर कुणिक अपनी चतुरंगिणी सेना और समस्त राज्यद्धि के साथ जम्यूकुमार के दर्शनार्थ मभिनिष्क्रमणोत्सव में संमिलित हुए।' मगधनरेश कूरिणक पोर जम्बूद्वीप के अधिष्ठाता अनाधृत देव से परिवृत्त जम्बूकुमार वर्षाकालीन घनघोर घटा की तरह द्रव्य की वर्षा कर रहे थे। कूणिक ने जम्बूकुमार से कहा- "धीरवर ! मेरे योग्य कोई कार्य आप उचित समझते हों, उसे करने की मुझे भी आज्ञा दीजिये।" कूणिक का इतना कहना था कि प्रभव, कुमार अपने पांच सौ साथियों के साथ वहां आ पहुंचा और उसने गुरुचरणों में मस्तक झुका कर नमस्कार किया। जम्बूकूमार ने महाराज कृरिणक से कहा- "राजन् ! इस प्रभव ने जो भी अपराध किये हों, उन्हें पाप क्षमा कर दीजिये। विगत रात्रि में यह मेरे घर में चोरी करने हेतु प्राया था। उस समय मैंने इसकी समस्त ऐहिक एषणाओं को शान्त कर दिया । अब यह मेरे साथ संयम ग्रहण करेगा।" इस पर कुणिक ने कहा- "इन महानुभाव ने आज तक जितने भी अपराध किये हैं, उनके लिये मैं इन्हें क्षमा करता हूं। ये निर्विघ्न रूप से श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण करें।
जम्बूकुमार का अभिनिष्क्रमण जनौष (जुलूस) राजगृह नगर के मुख्य मार्गों से क्रमशः आगे बढ़ता हुआ नगर के बाहर उस पाराम के पास पहुंचा जहां सुषर्मा स्वामी प्रपने श्रमण संघ के साथ विराजमान थे। शिविका से उतर कर जम्मूकुमार ५२७. मुमुक्षणों के साथ सुधर्मा स्वामी के सम्मुख पहुंचे और उनके परणों पर अपना मस्तक रख कर प्रार्थना करने लगे- "प्रभो! प्राप मेरे परिजनों सहित मेरा उदार कीजिए।"
दीक्षार्थियों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व की जाने वाली सभी प्रावश्यक क्रियामों के सम्पादन के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी ने जम्बूकुमार, उनके मातापिता पाठों पत्नियों, पत्नियों के माता-पिता, प्रभव तथा प्रभव के ५०० साथियों
' गुरुसेन मिलियसहरिसम्वुररवसंपायलिय भूवीढो । जंबुस्स दंसरणत्यं, समागमो कोणिय नरिंदो ॥५०३।।
[जंबुचरियं, गुगपाल रचितं, १६ उ०] २ घणमो व पूरमाणो, दविणमहासंचएण पणइयणं । कोणिय नरनाहेणं, सहियो य अमढिय सुरेण ॥५१५।।
[जंबुचरियं (गुणपाल) १६ उ.] . पभवो पभूयपहाणपुरिसपरिवारवुड़ो पत्तो। नरनाहाणुनामो, सिबियाए सहेव संचलियो ।।८४३।।
जम्बूचरियं – रत्नप्रभसूरि विरनित नरनाहेणं भरिणयं कुणम् प्रविग्घेण एस सामण्णं । खमियं सम्बं पि मए, एयस्स महारणुभावस्स ।।५२६।। (जंबुचरियं, उ०१६]
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