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कूणिक की जिज्ञासा ]
केवलिकाल : भार्य जम्बू
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पहुंचा। उसने भगवान् महावीर के पट्टधर श्रार्य सुधर्मा स्वामी को बड़ी श्रद्धापूर्वक एवं भक्ति सहित वन्दन - नमन के पश्चात् समस्त साधुसंघ को वंदन किया ।
तपोपूत युवा श्रमरण जम्बू के प्रत्यन्त तेजस्वी दिव्य स्वरूप को देखकर कूरिक को बड़ा विस्मय हुआ । कूरिणक ने आश्चर्य प्रकट करते हुए सुधर्मा स्वामी से पूछा - "भगवन् ! आपके शिष्य श्रमणसमूह में यह तारामण्डल में पूर्णचन्द्र के समान कान्तिमान, घृतसिंचित प्रग्नि की जाज्वल्यमान ज्वाला की तरह दुर्निरीक्ष्य और महान् तेजस्वी स्वरूप वाले युवा श्रमरण कौन हैं ? इन्होंने किस तपश्चरण, शीलपालन अथवा महान् दान के प्रभाव से इस प्रकार का अत्यन्त आकर्षक एवं देदीप्यमान सुन्दरतम स्वरूप पाया है ?"
इस पर सुधर्मा स्वामी ने कूणिक को जम्बू कुमार के पूर्वभवों का वह पूरा वृत्तान्त कह सुनाया जो विद्युन्माली देत्र के सम्बन्ध में श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर भगवान् महावीर ने जम्बू कुमार के गर्भावतररण से ७ दिन पूर्व सुन्नाया था ।
श्राचार्य हेमचन्द्र ने "परिशिष्ट पर्व" में इस बात का उल्लेख किया है कि कूरिक को जम्बू श्रमरण का पूर्व वृत्तान्त आदि सुनाने के पश्चात् श्रार्य सुधर्मा - अपने शिष्य मण्डल सहित चम्पा से विहार कर श्रमरण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ विचरण करते रहे ।" पर प्राचार्य हेमचन्द्र का यह कथन तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । क्योंकि स्वयं उनके द्वारा परिशिष्ट पर्व में उल्लिखित कतिपय तथ्यों से आर्य जम्बू का दीक्षा-काल भगवान् महावीर के निर्वारण के पश्चात् का ही ठहरता है ।
जन्म, निर्वारण आदि कालनिर्णय
सम्बन्धित घटनाक्रम पर विचार करने से यह विदित होता है कि जम्बू कुमार का जन्म महावीर की केवली चर्या के १४ वें वर्ष में हुआ । जम्बू कुमार के जन्म से ७ दिन पूर्व महाराज श्रेणिक ने भगवान् महावीर से पूछा - " भगवन् ! भरत क्षेत्र में केवलज्ञान किसके पश्चात् समाप्त हो जायगा ।"
भगवान् ने उत्तर दिया- "देखो ! चार देवियों से परिवृत्त ब्रह्म ेन्द्र के समान ऋद्धिवाला जो यह विद्युन्माली देव है, यही प्राज से सातवें दिन ब्रह्म स्वर्ग से च्यवन कर तुम्हारे नगर राजगृह में श्रेष्ठी ऋषभदत्त के यहां समय पर पुत्र रूप से उत्पन्न होगा और यही भरत क्षेत्र का इस अवसर्पिणी काल का अन्तिम केवली होगा ।
, सुषर्मापि ततः स्थानाज्जगाम सपरिच्छदः । श्री महावीर पादान्ते, तत्समं विजहार च ॥ २ नाथोऽप्यकथयत्पश्य, विद्युन्माली सुरो हासी । सामानिको ब्रह्मन्द्रस्य चतुर्देवीसमावृतः ॥ मोऽमुष्मात्सप्तमेऽच्युत्वा भावी पूरे तब । श्रेष्ठिऋषभदत्तस्य जम्मूः पुत्रोऽन्त्यकेवली || ६४ ॥
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[ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ४ ]
[ नही]
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