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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग वानर का कथानक वानर को रोते हए देख कर राजमहिषी ने कहा - "वानर ! अब तो तुम अपने स्वामी की आज्ञानुसार अपनी वानरी विद्या का प्रदर्शन करते रहो, इसी में तुम्हारी भलाई है । अब उस वृक्ष पर से द्रह में दो बार कूदने की घटना को बिल्कुल भूल जायो । अब पश्चात्ताप से कोई लाभ नहीं होने वाला है।"
पद्मश्री ने कटाक्षनिक्षेपपूर्वक सस्मित स्वर में जम्बू कुमार की ओर देखते हुए कहा - "कान्त ? मुझे भय है कि अनिश्चित अनागत के अद्भुत सुखों की मवाप्ति की आशा में आप भी कहीं वर्तमान में प्राप्त इन सुखद भोगोपभोगों का परित्याग कर उस वानर की तरह पश्चात्ताप से संतप्त न हो जायें ?"
पद्मश्री की बात सुनकर मुस्कुराते हुए जम्बू कुमार ने कहा - 'पद्मश्री ! मुझे अंगारकारक की तरह विषयों की किंचित्मात्र भी तृष्णा अथवा चाह नहीं है । सुनो :
अंगारकारक का दृष्टांत "एक अंगारकारक (कोयले बनाने वाला) अपने साथ पर्याप्त मात्रा में पीने का पानी लेकर दूरस्थ किसी जंगल में कोयले बनाने के उद्देश्य से पहुंचा। वहां उसने लकड़ियों को जलाना प्रारम्भ किया। ग्रीष्म ऋतु की तेज धूप और जलती हुई लकड़ियों की ज्वाला के कारण उसे तीव्र प्यास और असह्य जलन का अनुभव होने लगा। उसने बार-बार पानी पीना प्रारम्भ किया पर इससे भी उसकी प्यास और शरीर की तपन शान्त नहीं हुई। प्यास और तपन से पीड़ित हो वह बार-बार अपने शरीर पर और मुंह में पानी डालने लगा। इस प्रकार उसके पास जितना जल था, वह सब समाप्त हो गया। अब उसकी प्यास और शरीर की जलन तीव रूप धारण करने लगी। वह जल की तलाश में निकल पड़ा। थोड़ी ही दूर चलने के अनन्तर असह्य तृष्णा और ताप की पीड़ा से वह एक वृक्ष के नीचे पहुंचते-पहुंचते मूछित हो वृक्ष की छाया में गिर पड़ा। वृक्ष की शीतल छाया से उसे कुछ शान्ति का अनुभव हुआ और थोड़ी देर के लिए उसे निद्रा ने आ घेरा।
उस अंगारकारक ने स्वप्नावस्था में संसार के समस्त वापी, कूप, तडाग ग्रादि जलाशयों का मन्त्रदिग्ध आग्नेयास्त्र की तरह समस्त जल पी डाला पर उसकी तृष्णा एवं तपन किंचित्मात्र भी कम नहीं हुई। उसकी निद्रा भंग हुई और वह वहां से चल कर एक वापी के पास पहुंचा। उस बावड़ी में उतर कर उसने अंजलि से पानी पीना चाहा पर वहां पानी के स्थान पर केवल कीचड़ पाया।
तृषा और तपन से व्याकूल वह अंगारकारक झुक कर अपनी जिह्वा से उस वापी के कीचड़ को चाटने लगा पर इससे न उसकी प्यास ही बुझी और न तपन ही मिटी।"
तदनन्तर पद्मश्री को सम्बोधित करते हए जम्बूकूमार ने कहा - बाले! हम सब लोगों के जीव अंगारकारक की तरह हैं और संसार के समस्त विषयमुख
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