________________
२१० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रवजित होने का प्रस्ताव ऐसी दशा में तुमने आज एक ही दिन में ऐसी कौनसी विशिष्टता उपलब्ध करली है जिसके कारण तुम प्रवजित होने की बात कह रहे हो?"
इस पर जम्बुकुमार ने कहा- "तात-भात ! संसार में कई लोग ऐसे होते हैं जो बहुत समय के पश्चात् कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर पाते हैं और कुछ लोग प्रति स्वल समय में विशिष्ट परिज्ञा प्राप्त कर लेते हैं।" विशिष्ट परिज्ञा के उदाहरणस्वरूप जम्बुकुमार ने अपने माता-पिता को एक श्रेष्ठिपुत्र का निम्नलिखित आख्यान सुनाया :
"किसी समय एक प्रसिद्ध नगर में अप्सरा के समान सुन्दर गुणज्ञा नाम की एक गणिका रहती थी। प्रदीप पर पतंगों की तरह उसके रूप-लावण्य की छटा पर विमुग्ध हो देश-विदेश के अनेक रसिक राजपूत्र, अमात्यपुत्र और इभ्यपुत्र उसके यहां आकर अपना सर्वस्व लुटाते रहते थे। उस गरिएका के प्रेम में पागल से बने वे तरुण जब अपना समस्त वैभव व्यय कर अपने-अपने घरों की ओर लौटने के लिए समुद्यत होते तब वह उन्हें कहती-"पाप तो मुझे छोड़कर जारहे हैं लेकिन मैं कृतघ्ना नहीं हैं। मेरे स्मृतिचिह्न के रूप में आप मेरे पास से कोई न कोई वस्तू अवश्य लेते जाइये।"
विदाई की बेला में गणिका की उपर्युक्त बात सुनकर वे लोग गणिका द्वारा उपभुक्त करकंकरण, हार, भुजबन्ध प्रादि आभूषणों में से कोई एक आभूषण लेकर अपने घर की राह पकड़ते ।
अपना सर्वस्व लुटा चुकने के पश्चात् एक बार एक इभ्यपुत्र की वहां से विदाई का समय आया तो गणिका ने उसके समक्ष भी अपनी वही बात दोहराई। वह श्रेष्ठी-पुत्र एक निष्णात रत्नपरीक्षक था। उसने गणिका का अमूल्य पंचरत्नों से जटित स्वर्णनिर्मित पादपीठ देखा और कहा - "सुमुखि ! मैं तुम्हें अपना सर्वस्व समर्पित कर चुका है. अतः तुम से कुछ भी लेना अपने सम्मान के अनुकूल नहीं समझता। फिर भी तुम्हारे सुकोमल हृदय को ठेस न पहुंचे इस दृष्टि से तुम्हारी इच्छा रखने हेतु चाहता है कि सदा तुम्हारे पैरों नीचे रहने वाला यह पाद पीठ दे दिया जाय। बस, तुम्हारे स्मृति-चिह्न के रूप में मेरे लिए यही पर्याप्त है।"
गणिका ने बड़े प्राग्रहपूर्ण शब्दों में कहा- "आपने ऐसी स्वल्प मूल्य की वस्तु क्या मांगी? कोई और बहुमूल्य वस्तु मांगिये।"
श्रेष्ठिपुत्र रत्नों का कुशल पारखी था। उसने पादपीठ को गणिका के घर की सारभूत वस्तु समझकर कहा - "मुझे तो सदा तुम्हारे पैरों के नीचे रहने वाली यही साधारण वस्तु प्रिय है।"
अन्ततोगत्वा गरिएका ने अपना पादपीठ श्रेष्ठिपुत्र को दे दिया। श्रेष्ठिपुत्र उस पादपीठ को लेकर अपने घर लौट आया। उसने पादपीठ के कीमती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org