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प्रति घोर प्रतिज्ञा केवलिकाल : प्रार्य जम्बू
२०६ जम्बुकुमार की प्रार्थना पर आर्य सुधर्मा ने भी उन्हें जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारी रहने का व्रत ग्रहण करवाया। व्रत ग्रहण के पश्चात् जम्बुकुमार ने पुनः बड़ी श्रद्धा से आर्य सुधर्मा को प्रणाम किया और रथ में बैठकर अपने घर पहुंचे।
माता-पिता के समक्ष प्रवजित होने का प्रस्ताव अपने विशाल भवन के प्रांगण में पहुँचते ही जम्बुकुमार रथ से उतर कर सीधे अपने माता-पिता के पास पहुंचे। माता-पिता को प्रणाम कर जम्बुकुमार ने उनसे निवेदन किया – “अम्ब तात! मैंने आज आर्य सुधर्मा स्वामी के पास जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित सारभूत धर्मोपदेश सुना।" ।
___माता धारिणी ने अपने प्राण प्रिय पुत्र जम्बू की बलयां लेते हुए स्नेहसिक्त स्वर में कहा - "वत्स ! तुम परम भाग्यशाली हो कि तुमने ऐसे महान् धर्म-धुरीण धर्मोपदेशक के दर्शन, वन्दन-नमन एवं उपदेशश्रवण से अपने नेत्रों, शिर, कर्णरन्ध्रों, अन्तःकरण एवं जीवन को सफल किया।"
जम्बुकुमार ने पुनः कहा – “अम्ब-तात ! सुधर्मा स्वामी के उपदेश को सुनकर मेरे अन्तर के पट खुल गये, मुझे मेरे कर्तव्य का और सत्पथ का बोध हो गया, मेरे अन्तर में उस अक्षय-अमर-परमपद को प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई है, जहां जन्म, जरा, मृत्यू और रोग-शोक प्रादि के लिए कोई स्थान नहीं है। संकट के समय शत्रु से नगर की रक्षार्थ नगर के द्वार पर विशाल शिलाखण्ड एवं गोले यन्त्रों में रखे हए हैं। उन्हें देख कर मुझे ऐसा अनुभव. हुप्रा कि यदि उनमें से एक भी शिला खण्ड अथवा गोला मेरे ऊपर गिर जाय तो अवती दशा में मेरी मृत्यु हो सकती है। अतः मैं लौट कर पुनः सुधर्मा स्वामी की सेवा में उपस्थित हुअा और उनसे मैंने प्राजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत ग्रहण किया । पूज्यो! मैं सुधर्मा स्वामी के पास आहती दीक्षा ग्रहण कर उस परमपद की प्राप्ति हेतु प्रयास करने का दृढ़ निश्चय कर चुका हूँ। कृपा कर आप मुझे दीक्षित होने की प्राज्ञा प्रदान कीजिये ।"
अपने प्राणप्रिय एक मात्र पुत्र के मुख से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने एवं प्रवजित होने की बात सुनते ही ऋषभदत्त और धारिणी के हृदय पर वज्राघात सा लगा और वे कुछ क्षणों के लिए मूछित हो गये। मूर्छा दूर होने पर वे दोनों अपनी प्रांखों से अविरल अश्रुधाराएं बहाते हए बड़े दीन स्वर में बोले - "प्रिय पुत्र! तुम ही हमारे मनोरथों को पूर्ण करने वाले हो । तुम्हारे बिना हमारा जीवन दूभर हो जायगा। तुमने प्रार्य सुधर्मा स्वामी से जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित धर्मोपदेश सुना, यह तो बहुत अच्छा किया। परम्परा से हमारे अनेक पूर्वज भी जिन शासन के श्रद्धालु भक्त रहे हैं पर जहां तक हमने सुना है, उनमें से किसी ने प्रव्रज्या ग्रहण नहीं की। हम दोनों भी बहुत समय से जिनोपदेश सुनते पा रहे हैं पर आज तक हमारे मन में कभी इस प्रकार का निश्चय उत्पन्न नहीं हुमा।
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