________________
२०७
प्रार्य जम्बू के माता-पिता केवलिकाल : प्रार्य जम्बू दूरदर्शिता आदि अनेक अनुपम सद्गुणों की अभिव्यक्ति कर रही थी। प्रगाढ़ पूर्वसम्बन्ध के कारण जम्बुकुमार की यशोगाथाएं सुनते ही प्रांठों श्रेष्ठि कन्याओं ने जम्बुकुमार को पतिरूपेण वरण करने का मन ही मन अटल निश्चय कर लिया। सखी-सहेलियों के माध्यम से अपनी पुत्रियों की आन्तरिक अभिलाषाओं के ज्ञात होते ही पाठों बालाओं के माता-पिता ने परम हर्ष का अनुभव करते हुए जम्बु. कुमार के माता-पिता के पास उनके इकलौते पुत्र जम्बुकुमार के साथ अपनी पुत्रियों के विवाह-प्रस्ताव रखे । ऋषभदत्त और धारिणी ने भी उनके उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
जम्बू को विरक्ति उन्हीं दिनों भगवान् महावीर के दिव्य संदेश को ग्रामों, नगरों तथा जनपदों में पहुंचाते हए एवं ममक्ष भव्य प्राणियों के अन्तर्मन को प्रफुल्लित करते हुए आर्य सुवर्मा अपने श्रमरणसंघ के साथ राजगृह नगर के गुरणशील चैत्य में पधारे । सुधर्मा स्वामी के आगमन का शुभ संवाद सुनते ही जम्बुकुमार के हर्ष का पारावार न रहा। वे एक शीघ्रगामी एवं धार्मिक अवसरोचित रथ पर प्रारूढ हो सुधर्मा स्वामी की सेवा में पहुंचे। उन्होंने सुधर्मा स्वामी को अगाध श्रद्धा और परमाभक्ति से विधियुक्त वन्दन-नमन किया और धर्मपरिषद् में यथास्थान बैठ गये।
अमृत की धनघटा से जिस प्रकार अमृतवर्षा की ही अपेक्षा की जाती है, उसी प्रकार अर्हत् भगवान् के समान समस्त तत्वों की विशद् व्याख्या करने वाले प्रार्य सुधर्मा ने धर्मपरिषद् को उद्दिष्ट कर आध्यात्मिक उपदेश देना प्रारम्भ किया। उन्होंने अपनी देशना में जीव, अजीव, पुण्य-पाप, प्रास्रव, बंध, संवर निर्जरा तथा मोक्ष के स्वरूप का सब के लिये बोधप्रद विशद् विवेचन किया । मानवभव की महत्ता बताते हुए उन्होंने फरमाया- "भव्यो ! विश्वहितैषी भगवान महावीर के उपदेशानुसार पाचरण करके भव्य प्राणी भवसागर को पार करने में सफल हो सकते हैं । अतः मानव मात्र को इस प्राप्त अवसर का लाभ उठाना चाहिये।
आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में मानव भौतिक एषणामों के पीछे अहर्निश भागता है और भव सागर में आर्थिक हानि-लाभ के उतार-चढ़ावों के कारण उठी उत्तुंग तरंगों की थपेड़ें खाता हुआ अनन्त काल तक भवभ्रमण करता रहता है। काम भोगों के क्षणिक एवं दुखांत काल्पनिक सुख में लुब्ध मानव यह नहीं सोचता कि पवन के प्रबल झोंकों से झकझोरित वृक्षों से तड़ातड़ झड़ते हुए पत्तों की तरह प्राणियों का जीवन क्षणिक और अनिश्चित है। वादल में से जिस प्रकार पानी तीव्र वेग से झरता है उसी प्रकार मानव की आयु प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है। जो प्रियजनों का संयोग है वह वस्तुतः वियोगान्त है और लक्ष्मी विजली की चमक के समान क्षणिक, चंचल एवं अस्थिर है। बुद्धिमान मानव वही हैं जो आयु, यौवन, कामभोग, लक्ष्मी एवं शरीर को क्षण विध्वंसी समझ कर सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र रूपी रत्नत्रयी को ग्रहण कर इनकी सम्यकरूपेगा आराधना-पालना करते हुए अनन्त, अव्यावाध, शाश्वत शिवसुख की प्राप्ति हेतु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org