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मार्य जम्बू के माता-पिता] केवलिकाल : आर्य जम्बू
२०५ स्वप्न देखने के तत्काल पश्चात् धारिणी जग उठी और पति के पास जाकर अतीव प्रसन्न मुद्रा में अपने स्वप्न का हाल सुनाते हुए बोली- "प्राणनाथ ! देवर जसमित्र के कथनानुसार मैंने स्वप्न में केसरीसिंह को देखा है। अब मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि हमारी चिंराभिलषित मनोकामना पूर्ण होगी।
अन्धे को दो आंखें मिल जाने पर जिस प्रकार की प्रसन्नता होती है उसी प्रकार की प्रसन्नता ऋषभदत्त को हुई और उसने कहा - "देवी ! जैसा कि भगवान् महावीर ने फरमाया था, तुम वैसे ही महाप्रतापी पुत्र को जन्म दोगी।''
धारिणी बड़े ही प्रमोद के साथ गर्भ को धारण करती हुई अपने आपको धन्य समझने लगी। गर्भकाल में धारिणी को दीनदुखियों के दुःखों को दूर करने एवं श्रमण-निग्रंथों को प्रशन-पानादि से प्रतिलाभित करने आदि के अनेक दोहद उत्पन्न हुए। ऋषभदत्त और धारिणी ने मुक्तहस्त से अपार धनराशि व्यय कर उन दोहदों की बड़े हर्षोल्लास के साथ पूर्ति की।
अनुक्रम से ज्यों-ज्यों गर्भ बढ़ने लगा त्यों-त्यों गर्भगत महापुण्यशाली पाणी के प्रभाव से श्रेष्ठिपत्नी धारिणी की धर्म के प्रति अभिरुचि उत्तरोत्तर बढ़ने लगी।
___ गर्भकाल के परिपक्व होने पर धारिणि ने एक महातेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। नवजात शिशु का वर्ग करिगकार कुसुम की केसर के समान और शरीर की कान्ति बालसूर्य के समान कमनीय थी। पुत्र-जन्म की खुशी में सेठ ऋषभदत्त के भव्य भवन में हर्षोल्लास का सुखद वातावरण व्याप्त हो गया। मंगलगीतों और विविध वाद्यवृन्दों की कर्णप्रिय धुनों से गगनमण्डल गुंजरित हो उठा। लय और ताल पर नृत्य के साथ-साथ मंगल गान गाती हई कोकिलकठिनी सुरवधूपम सुन्दरियों के नूपुरों की झंकारों और गुकोमल कंठारवों से मादकता मुखरित हो उठी। श्रेष्ठिवर ऋषभदत्त ने अपने अनुचरों, वन्दीजनों, याचकों एवं दीन-दरीद्रों को दिल खोल कर इतना द्रव्य लुटाया कि उनका दारिद्र्य सदा के लिए दूर हो गया। उसने अपने सम्बन्धी एवं स्वजनों को भी द्रव्यालंकारादि से सम्मानित एवं संतुष्ट किया। बारह दिन तक बड़े ही ठाट-बाट के साथ ग्रहनिश मंगल महोत्सव मनाये गये। एक शुभ दिन एवं शुभ मुहूर्त में विशिष्ट ममारोह के साथ शिशु का नामकरण किया गया। परिजनों एवं परिचितों को परम स्वादिष्ट पड़रम भोजन से तृप्त करने के पश्चात् पुत्र का नामकरण किया गया। माता द्वारा स्वप्न में जम्बूफल देखने और जुम्बद्वीपाधिपति ' तेगा वि भगिया - पहागो ते पुनो भविस्सनि जहा वागरियो ।
___- वसुदेव हिडी, प्र० ग्रंश, पृ० २.३ २ समुप्पन्नोय से दोहलो जिग्गासाहपूयाए सोय विभव ग्रो सम्मागियो ।
-वही, पृ०३
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