________________
द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
१८३ सं० २१,००० के लगभग जिस दिन पचम प्रारक समाप्त होगा, उस दिन के प्रथम प्रहर में प्राचार्य दुःप्रसह के स्वर्ग-गमन के साथ ही आचारांग का भी पूर्णतः उच्छेद हो जायगा । यदि वीर नि० सं० २०,००० में ही प्राचारांग का पूर्णतः उच्छेद हो जाता है तो वीर निर्वाण के लगभग २१००० वर्ष पश्चात् पंचम प्रारक को समाप्ति के अंतिम दिन में स्वर्गस्थ होने वाले दुःप्रसह प्राचार्य को अंतिम प्राचारधर किस प्रकार बताया जा सकता है ? यदि कहा जाय कि यहां 'प्राचारधर' शब्द का प्रयोग प्राचारांगधर के अर्थ में नहीं अपितु आचारधर के अर्थ में किया गया है तो यह कथन किसी भी दशा में उचित नहीं ठहरता। क्योंकि गाथा में निर्दिष्ट - "तेरण समं पायारो, निस्सिही समं चरित्तेणं" - इस पद में 'चरित्तेणं' इस शब्द से चारित्र अर्थात् प्राचार का और 'मायारो' इस शब्द से प्राचारांग का स्पष्ट शब्दों में पृथक-प्रयक उल्लेख किया गया है। यदि तित्थोगाली के रचनाकार को 'प्रायारो' शब्द से चारित्र-प्राचार अर्थ अभीष्ट होता तो वे 'समं चरित्तेणं' इस पद से चारित्र का पुनः पृयक रूप से उल्लेख नहीं करते। वस्तुतः उन्होंने 'आयारो' शब्द का प्रयोग इस गाथा में प्राचारांग के लिये ही प्रयुक्त किया है और इससे आगे की गाथा संख्या ८२० के- "न य तइया समणाणं, पायारसुत्ते परदुम्मि" - इस पद में अपने अभिप्रेत कथन को यह कह कर सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट कर दिया है कि प्राचार-सूत्र के विनष्ट होने के पश्चात् श्रमणों का एकान्ततः अभाव हो जायगा।
इन सब तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि 'तित्थोगाली' में जो अंगशास्त्रों के विच्छेद का पृथक-पृथक समय दिया गया है, उस-उस समय में आचारांगादि अंग शास्त्रों का पूर्णतः नहीं अपितु अंशतः विच्छेद बताया गया है। तित्थोगाली के प्रणेता आचार्य का उक्त प्रकरण में यही बताने का अभिप्राय है कि गणधरकाल में द्वादशांगी का जो विशाल स्वरूप था उसका प्रचुर मात्रा में विच्छेद हो गया अथवा होगा पर अंशतः छोटे-बड़े यत्किचित् रूपेण द्वादशांगी पंचम पारक की समाप्ति के अंतिम दिन में चतुर्विध तीर्थ की विद्यमानता तक निश्चित रूप से विद्यमान रहेगी।
तित्थोगाली के उपरोक्त प्रकरण की गाथाओं को ध्यानपूर्वक देखने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि जहां किसी अंगशास्त्र के सम्पूर्ण रूप से विलुप्त होने का उल्लेख करना ग्रन्थकार को अभीप्सित था वहां उन्होंने 'नासिही', 'निस्सिही'. और 'पणम्मि' शब्दों का प्रयोग किया है और जहां उन्हें किसी अंगशास्त्र के कुछ अंश, कुछ भाग के विलुप्त होने का उल्लेख करना अभीष्ट था वहां उन्होंने "वोच्छेदो", "वोच्छित्ती" - इन शब्दों का प्रयोग किया है । इससे भी ग्रन्थकार के अभिप्राय का स्पष्ट पाभास होता है कि अंगशास्त्रों के विच्छेद का जो विवरण उन्होंने तित्थोगाली में प्रस्तुत किया है उसमें उन्होंने कतिपय अंगों के अंशतः लोप का और अंत में दुप्पसह प्राचार्य की मृत्यु के पश्चात् पादारांग के सम्पूर्णतः विनष्ट होने का उल्लेख किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org