________________
मायं जम्बू के पूर्वभव] केवलिकाल : प्रायं जम्बू
१८६ से भवदत्त और भवदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। युवावस्था में पदार्पण करते ही भवदत्त ने संसार से विरक्त हो सुस्थित नामक प्राचार्य के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली और उनके साथ विभिन्न क्षेत्रों, नगरों एवं ग्रामों में विचरण करते हुए संयम की साधना करने लगा।
एक बार आचार्य सुस्थित का एक शिष्य उनसे आज्ञा प्राप्त कर कुछ श्रमणों के साथ अपने छोटे सहोदर को दीक्षित होने की प्रेरणा देने हेतु अपने ग्राम पहँचा। ग्राम में उसके छोटे भाई का विवाह निश्चित हो चुका था अतः वह प्रवजित नहीं हशा और फलतः मुनि को बिना कार्यसिद्धि के ही लौटना पड़ा। मूनि भवदत्त ने अपने साथी मनि से बात ही बात में कह दिया- "आपके भाई के हृदय में यदि आपके प्रति प्रगाढ़ प्रीति और सच्चा भ्रातप्रेम होता तो बड़े लम्बे समय के पश्चात् आपको देख कर अवश्यमेव वह आपके पीछे २ चला प्राता।"
मुनि भवदत्त के इस कथन को अपने भ्राता के स्नेह पर ग्राक्षेप समझ कर उस मुनि ने कहा - "मुने! कहना जितना सरल है, वस्तुतः करना उतना सरल नहीं। यदि आपको अपने भाई के प्रति इतना दृढ़ विश्वास है तो आप उन्हें प्रवजित करवा कर दिखाइये।"
भवदत्त मुनि ने कहा – “यदि प्राचार्यश्री मगध जनपद की ओर विहार करें तो कुछ ही दिनों पश्चात् आप मेरे लघु भ्राता को अवश्य ही मुनिवेश में देखेंगे।
___ संयोगवश आचार्य सुस्थित अपने शिष्यों सहित विचरण करते हुए मगध जनपद में पहुंच गए। मुनि भवदत्त भी अपने गुरु से प्राज्ञा लेकर कुछ साधुओं के साथ अपने ग्राम में पहुंचे। मुनि भवदत्त के दर्शन कर उनके परिजन व परिचित परम प्रसन्न हुए और उन्होंने सब श्रमणों को निरवद्य आहारादि का दान देकर अपने आपको कृतकृत्य समझा। जिस समय भवदत्त अपने परिवार के लोगों के बीच पहुंचे उससे कुछ ही समय पहले भवदेव का विवाह नागदत्त एवं वासुकी की कन्या नागिला के साथ सम्पन्न हुआ था। अपनी सखी-सहेलियों के बीच बैठी नववधु नागिला को जिस समय भवदेव शृगारालंकारादि से अलंकृत कर रहा था, उसी समय उसे अपने अग्रज भवदत्त के शुभागमन का समाचार मिला। वह तत्काल उनके दर्शन एवं वन्दन हेतु उठ बैठा। यद्यपि नववधु की सखियों ने उसे बहुतेरा समझाया कि नवविवाहिता पत्नी को प्रसाधनादि से अर्द्धशृगारितावस्था में छोड़कर उसे नहीं जाना चाहिए तथापि भवदेव क्षण भर भी बिना रुके सुदीर्घकाल से बिछुड़े अपने बड़े भाई से मिलने की उत्कण्ठा लिए यह कह कर चल दिया - "कुलबालाअो! मैं अपने ज्येष्ठार्य को प्रणाम कर अभी-अभी लौटता हूँ।"
तदनन्तर भवदेव बड़ी शीघ्रतापूर्वक अपने बड़े भाई भवदत्त के पास पहुंचा और उसने असीम हर्षोल्लास से भावविभोर हो अपना मस्तक उनके चरणों पर रख दिया। मुनि भवदत्त ने घृत से भरा अपना एक पात्र भवदेव के हाथों पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org